खीरा की उत्पत्ति मूलतः भारत से ही हुई है तथा लता वाली सब्जियों में इसका महत्वपूर्ण स्थान है । इसके फलों का उपयोग मुख्य रूप से सलाद के लिए किया जाता है । इसके फलों के 100 ग्राम खाने योग्य भाग में 96.3 प्रतिशत जल, 2.7 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 0.4 प्रतिशत खनिज पदार्थ पाया जाता है । इसके अलावा इसमें विटामिन बी की प्रचुर मात्राएँ पाई जाती हैं । फलों की तासीर ठण्डी होती है तथा कब्ज दूर करने में सहायक हैं । खीरे के रस का उपयोग करके कई तरह के सौन्दर्य प्रसाधन बनाये जा रहे हैं । देश के सभी प्रदेशों में इसकी खेती प्राथमिकता के आधार पर की जाती है ।
जलवायु
इसकी खेती के लिए सर्वाधिक तापमान 400 सेल्शियस तथा न्यूनतम 200 सेल्शियस होना चाहिए । अच्छी बढ़वार एवं फल-फूल के लिए 25-300 सेल्शियस तापमान अच्छा होता है । अधिक वर्षा, आर्द्रता तथा बदली होने से कीटों एवं रोगों के प्रसार में वृद्धि होती है । अधिक तापमान तथा प्रकाश की अवस्था में नर फूल अधिक निकलते हैं, जबकि इसके विपरीत मौसम होने पर मादा फूलों की संख्या अधिक होती है ।
भूमि
खीरा की खेती के लिए बलुई दोमट या दोमट भूमि जिसमें जल निकास का उचित प्रबंधन हो, सर्वोत्तम पाई गई है । भूमि में कार्बन की मात्रा अधिक तथा पी.एच. मान 6.5-7 होना चाहिए । खीरा मुख्य रूप से गर्म जलवायु की फसल है इस पर पाले का प्रभाव अधिक होता है ।
खीरे की उन्नत किस्में / ककड़ी की किस्में
१.स्वर्ण अगेती
यह एक अगेती किस्म है, बुआई केे 40-42 दिनों बाद प्रथम तुड़ाई की जा सकती है । इसके फल मध्यम आकार के, हल्के हरे सीधे तथा क्रिस्पी होते हैं । इस प्रजाति की बुआई फरवरी तथा जून के महीने में की जा सकती है । फलों की संख्या प्रति पौध लगभग 15 होती है । फलों की तुड़ाई फल लगने के 5-6 दिनों के अन्तराल पर करते रहना चाहिए । सामान्य दशा में एक हेक्टेयर क्षेत्रफल से 200-250 कु0 उनज प्राप्त होती है ।
२.स्वर्ण पूर्णिमा
यह मध्यम अवधि में तैयार होने वाली फसल है । इसके फल लम्बे, हल्के हरे, सीधे तथा ठोस होते हैं फलों की तुड़ाई बुआई के 45-47 के बाद शुरू हो जाती है । फलों की तुड़ाई 2-3 दिनों के अन्तराल पर करते रहना चाहिए । सामान्य दशा में एक हेक्टेयर क्षेत्रफल से 200-225 कु. उपज प्राप्त होती है ।
३.पंत संकर खीरा – 1
इस संकर प्रजाति की बुबाई के लगभग 50 दिनों के बाद फल तुड़ाई के लिए तैयार हो जाते हैं । फल मध्यम आकार के (20 से.मी. लम्बे) तथा हरे रंग के होते हैं । यह संकर प्रजाति मैदानी भागों तथा पहाड़ी क्षेत्रों में लगाने के लिए उपयुक्त है । सामान्य दशा में एक हेक्टेयर क्षेत्रफल से 300-350 कु. प्राप्त होती है ।
खाद एवं उर्वरक
खीरा की खेती के लिए 80 कि.ग्रा. नत्रजन, 60 कि.ग्रा. फास्फोरस तथा 60 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर देना चाहिए । फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी तथा नत्रजन की आधी मात्रा बुआई के समय मेड़ पर देना चाहिए । शेष नत्रजन की मात्रा दो बराबर भागों में बाँटकर बुआई के 20 एवं 40 दिनांे बाद गुड़ाई के साथ देकर मिट्टी चढ़ा देना चाहिए ।
बुआई का समय
मुख्य फसल के रूप में मैदानी क्षेत्रों में बुआई फरवरी एवं जून के प्रथम सप्ताह में करते हैं । दक्षिण भारत में इसकी बुआई जून से लेकर अक्टूबर तक करते हैं, जबकि उत्तर भारत के पर्वतीय भागों में इसकी बुआई अप्रैल-मई में की जाती है । गर्मी की फसल को जल्दी लेने के लिए पालीथीन की थैलियों में जनवरी में पौध तैयार कर फरवरी में रोपण करते हैं ।
बीज की मात्रा
एक हेक्टेयर क्षेत्र की बुआई के लिए 2-2.25 कि.ग्रा. बीज की आवश्यकता पड़ती है । बीज की बुआई करने से पहले फफूँदीनाशक दवा जैसे कैप्टान या थिरम (2 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज) से अच्छी तरह शोधित करना चाहिए ।
बुआई की विधि
अच्छी तरह से तैयार खेत में 1.5 मी. की दूरी पर मेड़ बना लें । मेंड़ों पर 60 सें.मी. की दूरी पर बीज बोने के लिए गड्ढे बना लेना चाहिए । एक गड्ढे में 2 बीजों की बुआई करते हैं ।
सिंचाई
बुआई के समय खेत में नमी पर्याप्त मात्रा में रहनी चाहिए अन्यथा बीजों का अंकुरण वृद्धि अच्छी प्रकार से नहीं होती है । बरसात वाली फसल के लिए सिंचाई की विशेष आवश्यकता नहीं पड़ती है । औसतन गर्मी की फसल को पाँचवें दिन तथा जाड़े की फसल को 10-15 दिनों पर पानी देना चाहिए । तने की वृद्धि, फूल आने के समय तथा फल की बढ़वार के समय पानी की कमी नहीं होनी चाहिए ।
खरपतवार नियंत्रण एवं निकाई-गुड़ाई
वर्षाकालीन फसल में खरपतवार की समस्या अधिक होती है । जमाव से लेकर प्रथम 25 दिनों तक खरपतवार फसल को ज्यादा नुकसान पहुँचाते हैं । इससे फसल की वृद्धि पर प्रतिकूल असर पड़ता है तथा पौधे की बढ़वार रूक जाती है । अतः खेत में समय-समय पर खरपतवार निकालते रहना चाहिए । खरपतवार निकालने के बाद खेत की गुड़ाई करके जड़ों के पास मिट्टी चढ़ाना चाहिए, जिससे पौधों का विकास तेजी से होता है
तुड़ाई एवं उपज
फल कोमल एवं मुलायम अवस्था में तोड़ना चाहिए । फलों की तुड़ाई 2-3 दिनांे के अन्तराल पर करते रहना चाहिए । खीरा की औसत उपज 150-250 कु0 /हे. होती है ।
प्रमुख कीट एवं नियंत्रण
१.कद्दू का लाल कीट (रेड पम्पकिन बिटिल)
इस कीट की सूण्ड़ी जमीन के अन्दर पायी जाती है । इसकी सूण्डी व वयस्क दोनों क्षति पहुँचाते हैं । प्रौढ़ पौधों की छोटी पत्तियों पर ज्यादा क्षति पहुँचाते हैं । ग्रब (इल्ली) जमीन में रहती है जो पौधों की जड़ पर आक्रमण कर हानि पहुँचाती है । ये कीट जनवरी से मार्च के महीनों में सबसे अधिक सक्रिय होते है । अक्टूबर तक खेत में इनका प्रकोप रहता है । फसलों के बीज पत्र एवं 4-5 पत्ती अवस्था इन कीटों के आक्रमण के लिए सबसे अनुकूल है । प्रौढ कीट विशेषकर मुलायम पत्तियां अधिक पसन्द करते है । अधिक आक्रमण होने से पौधे पत्ती रहित हो जाते हैं ।
नियंत्रण
सुबह ओस पड़ने के समय रास का बुरकाव करने से भी प्रौढ़ पौधा पर नहीं बैठता जिससे नुकसान कम होता है । जैविक विधि से नियंत्रण के लिए अजादीरैक्टिन 300 पीपीएम 5-10 मिली/लीटर या अजादीरैक्टिन 5 प्रतिशत 0.5 मिली/लीटर की दर से दो या तीन छिड़काव करने से लाभ होता है । इस कीट का अधिक प्रकोप होने पर कीटनाशी जैसे डाईक्लोरोवास 76 ईसी0, 1.25 मिली/लीटर या ट्राइक्लोफेरान 50 ईसी., 1 मिली/लीटर की दर से जमाव के तुरन्त बाद एवं दुबारा 10 वें दिन पर पर्णीय छिड़काव करें ।
२.खीरे का फतंगा (डाइफेनीया इंडिका)
वयस्क मध्य आकार के तथा अग्र पंख सफेदी लिए हुए और किनारे पारदर्शी भूरे धब्बे पाये जाते हैं । सूंडी लम्बे, गहरे हरे और पतली होती है । ये पत्तियों के क्लोरोफिल युक्त भाग को खाते हैं जिससे पत्तियों में नसो का जाल दिखाई देता है । कभी-कभी फूल एवं फल को भी खाते हैं ।
नियंत्रण
नियमित अंतराल पर सूड़ियों को इकट्ठा करके नष्ट कर देना चाहिए । जैविक विधि से नियंत्रण के लिए बैसिलस थ्रूजेंसिस किस्म कुर्सटाकी / 1 किग्रा/हे0 की दर से एक या दो बार 10 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करें । आवश्यकतानुसार कीटनाशी जैसे क्लोरेंट्रानीलीप्रोल 18.5 एससी. / 0.25 मिली/लीटर या डाईक्लारोवास 76 ईसी /1.25 मिली/लीटर पानी की दर से भी छिड़काव कर सकते हैं ।
३.सफेद मक्खी
यह सफेद एवं छोटे आकार का एक प्रमुख कीट है । पूरे शरीर मोम से ढका होता है इसलिए इसे सफेद मक्खी के नाम से जाना जाता है । इस कीट के शिशु एवं प्रौढ़ पौधों की पत्तियों से रस चूसते हैं और विषाणु रोग फैलाते हैं, जिसके कारण पौधों की ढ़ोत्तरी रूक जाती है पत्तियाँ एवं शिराएं पीली पड़ जाती हैं ।
नियंत्रण
मक्का, ज्वार या बाजरा को मेड़ फसल / अन्तः सस्यन के रूप में उगाना चाहिए जो अवरोधक का कार्य करते हैं जिससे सफेद मक्खी का प्रकोप कम हो जाता है । जैव कीटनाशक जैसे वर्टीसिलियम लिकैनी / 5 मिली /लीटर या पैसिलोमाइसेज फेरानोसस / 5 ग्राम/ली. का प्रयोग भी किया जा सकता है । आवश्यकता के अनुसार कीटनाशकों जैसे इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल / 0.5 मिली/लीटर या थायामेथेक्जाम 25 डब्लू जी0 / 0.35 ग्राम/लीटर या फेनप्रोथ्रिन 30 ईसी. / 0.75 ग्राम/लीटर डाइमेथोएट 30 ईसी. / 2.5मि.ली./लीटर या स्पाइरोमेसिफेन 23 एससी. / 0.8मिली/लीटर की दर से छिड़काव करें ।
४.माईट(लाल मकड़ी)
लाल माईट एक बोहोत छोटी कीट है जो पत्तियों पर एक ही जगह जाला बना कर बोहोत अधिक संख्या में रहती है| इनका प्रकोप ग्रीष्म ऋतू में अधिक होता है|इनके प्रकोप के कारण पौधे अपना भोजन नहीं बना पाते जिसके फ़लस्वरूप पौधों में वृध्धि रुक जाती है तथा उपज में भारी कमी हो जाती है|
नियंत्रण
पावर छिड़काव मशीन द्वारा पानी का छिड़काव करने से फसल पर से मकड़ी अलग हो जाती है जिससे प्रकोप में कमी आती है । मकड़ीनाशक जैेसे स्पाइरोमेसीफेन 22.9 एससी. / 0.8 मिली/लीटर या डायकोफाल 18.5 ईसी. / 5मिली/लीटर या फेनप्रोथ्रिन 30 ईसी. / 0.75 ग्राम/लीटर की दर से 10-15 दिनों के अन्तराल पर छिड़काव करें ।
प्रमुख रोग एवं नियंत्रण
१.चूर्णी फफूँद (चूर्णित आसिता)
यह विशेष रूप से खरीफ वाली फसल पर लगता है । प्रथम लक्षण पत्तियाँ और तनों की सतह पर सफेद या धुंधले धूसर धब्बों के रूप में दिखाई देता है तत्पश्चात् ये धब्बे चूर्णयुक्त हो जाते हैं । ये सफेद चूर्णिल पदार्थ अन्त में समूचे पौधे की सतह को ढँक लेते हैं । जिसके कारण फलों का आकार छोटा हो जाता है तथा बीमारी की गम्भीर स्थिति में पौधों से पत्ते गिर जाते हैं ।
नियंत्रण
इसकी रोकथाम के लिए रोग ग्रस्त पौधों को खेत में इकट्ठा कर जला देते हैं । फफूँदनाशक दवा जैसे 0.05 प्रतिशत ट्रइडीमोर्फ अर्थात् 1/2 मि.ली. दवा एक लीटर पानी घोल बनाकर सात दिन के अंतराल पर छिड़काव करें । इस दवा के न उपलब्ध होने फ्लूसिलाजोल का 1 ग्राम/लीटर या हेक्साकोनाजोल का 1.5 मी.ली./लीटर या माइक्लोब्लूटानिल का 1 ग्राम/10 लीटर पानी के साथ 7 से 10 दिन के अंतराल पर छिड़काव करें ।
२. मृदुरोमिल आसिता
यह रोग वर्षा के उपरान्त जब तापमान 20-220 से.हो तब तेजी से फैलता है । उत्तरी भारत में इस रोग का प्रकोप अधिक है । इस रोग से पत्तियों पर कोणीय धब्बे बनते हैं जो कि बाद में पीले हो जाते हैं । अधिक आर्द्रता होने पर पत्ती के निचली सतह पर मृदुरोमिल कवक की वृद्धि दिखाई देती है ।
नियंत्रण
बीजों को एप्रोन नामक कवकनाशी से 2 ग्राम दवा प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करके बोना चाहिए । इसके अलावा मैंकोजेब 0.25 प्रतिशत (2.5 ग्राम/लीटर पानी) घोल का छिड़काव करते हैं तथा पूरी तरह रोगग्रस्त लताओं को उखाड़कर जला देना चाहिए । अगर बीमारी गम्भीर अवस्था में है तो मैटालैक्सिल ,मैंकोजेब का 2.5 ग्राम/लीटर की दर से या डाइमेयामर्फ का 1 ग्राम/लीटर ़ मैटीरैम का 2.5 ग्राम/लीटर की दर से 7 से 10 के अन्तराल पर 3-4 बार छिड़काव करें ।
३.खीरा मोजैक वायरस
इस रोग का फैलाव , रोगी बीज के प्रयोग तथा कीट द्वारा होता है । इससे पौधों की नई पत्तियों में छोटे, हल्के पीले धब्बों का विकास सामान्यतः शिराओं से शुरू होता है । पत्तियों में मोटलिंग, सिकुड़न शुरू हो जाती है । पौधे विकृत तथा छोटे रह जाते हैं । हल्के , पीले चित्तीदार लक्षण फलों पर भी उत्पन्न हो जाते हैं ।
नियंत्रण
इसकी रोकथाम के लिए विषाणु-मुक्त बीज का प्रयोग तथा रोगी पौधों को खेत से निकालकर नष्ट कर देना चाहिए । विषाणु वाहक कीट के नियंत्रण के लिए डाई मेथोएट (0.05 प्रतिशत) रासायनिक दवा का छिड़काव 10 दिन के अन्तराल पर करते हैं| फल लगने के बाद रासायनिक दवा का प्रयोग नहीं करते हैं ।
Source-
- भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान