खरबूजा की खेती मुख्यतः ग्रीष्म कालीन फलस के रूप में की जाती है । खरबूजे के बीजों की गिरी का उपयोग मिठाई को सजाने में किया जाता है । इसका सेवन मूत्राशय संबंधी रोगों में लाभकारी होता है । इसकी 80 प्रतिशत खेती नदियों के किनारे होती है । इसके मिठास के कारण लोग ज्यादा पसंद करते हैं । कच्चे फलों का उपयोग सब्जी के रूप में भी किया जाता है । इसकी खेती मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश तथा बिहार में बड़े पैमाने पर की जाती है ।
जलवायु
गर्म एवं शुष्क जलवायु वाले क्षेत्र इसकी खेती के लिए सर्वोत्तम होती है । अच्छी जल निकास वाली और जीवांश युक्त बलुई मिट्टी या दोमट मिट्टी इसके लिए सर्वोत्तम पाई गई है । इसकी फसल के लिए सर्वोत्तम मृदा पी.एच. मान 6-7 होता है । बीज के जमाव व पौधों के बढ़वार के लिए 22-260 सेल्शियस तापक्रम अच्छा होता है । नदी के किनारे दियारा भूमि में भी इसकी खेती की जा सकती है । हवा में अधिक नमी होने पर फल देरी से पकते हैं । फल पकते समय मौसम शुष्क तथा पछुआ हवा लेने से फलों में मिठास बढ़ जाता है ।
भूमि एवं भूमि की तैयारी
बलुई दोमट तथा जीवांश युक्त चिकनी मिट्टी जिसमें जल धारण क्षमता अधिक हो तथा पी.एच. मान 6.0-7.0 हो लौकी की खेती के लिए उपयुक्त होती है । पथरीली या ऐसी भूमि जहाँ पानी लगता हो तथा जल निकास का अच्छा प्रबंध न हो इसकी खेती के लिए अच्छी नहीं होती है । खेत की तैयारी के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल तथा बाद में 2-3 जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करते हैं । प्रत्येक जुताई के बाद खेत में पाटा चलाकर मिट्टी को भुरभुरी एवं समतल कर लेना चाहिए जिससे खेत में सिंचाई करते समय पानी कम या ज्यादा न लगे ।
खरबूजा की किस्में
१.काशी मधु:
इसके फल धारीदार एवं पकने पर हल्के पीले रंग के होते हैं । फल में मिठास लगभग 13 प्रतिशत एवं गूदे का रंग गहरा नारंगी होता है । फल का औसत वनज 800 ग्राम होता है । यह प्रजाति फफूंद से लगने वाले रोग जैसे चूर्णिल आसित के प्रति सहनशील है एवं इसकी औसत उपज 200-250 कुन्टल प्रति हैक्टेयर होती है । पाली हाउस में इस प्रजाति का उत्पादन सितम्बर से लेकर दिसम्बर तक किया जा सकता है ।
२.अर्का अजीत:
इसका फल छोटा (350 ग्राम), चपटा, गोलाकार एवं तुड़ाई के समय फल का रंग सुनहरा-नारंगी होता है । फल का गूदा सफेद, सुगंधित एवं मीठा (13 प्रतिशत) होता है । इसकी उपज क्षमता 140-150 कु./है. होती है ।
३.हरा मधु:
फल का औसत भार 1 किलोग्राम तथा फलों पर हरे रंग की धारियां पाई जाती हैं । फल पकने पर हल्के पीले पड़ जाते हैं । गूदा हल्का हरा, 2-3 से.मी. मोटा व रसीला होता है । इसके फल 100-110 दिन में पककर तैयार हो जाते हैं । इस प्रजाति में मिठास 12 प्रतिशत होती है । इसकी औसत उपज 150 कुन्टल प्रति हैक्टेयर होती है ।
४.पंजाबी सुनहरी:
इस किस्म की लता मध्यम लंबाई की फल गोलाकार एवं पकने पर हल्का पीला रंग का, गूदा नारंगी रंग का तथा रसदार होता है । इसके फलों में कुल मिठास 11 प्रतिशत होती है । इसके फलों का औसत भार 1 किलोग्राम तक होता है । यह किस्म भण्डारण एवं परिवहन के लिए उपयुक्त है । इस किस्म की औसत उपज 175-200 कुन्टल प्रति हैक्टेयर होती है ।
५.पंजाब संकर-1:
बेले मध्यम लम्बाई की, फलों का छिलका जालीदार एवं हल्का पीला तथा गूदा नारंगी रंग का होता है । फल काफी सुगंधित एवं मिठास की मात्रा 12 प्रतिशत तक होती है । औसत उपज 160 कुन्टल प्रति हैक्टेयर होती है । यह किस्म फल मक्खी एवं चूर्णिल आसिता के प्रति सहिष्णु है ।
खाद एवं उर्वरक
इसकी खेती के लिए 90 कि.ग्रा. नत्रजन, 70 कि.ग्रा. फास्फोरस तथा 60 कि.ग्रा. पोटाश प्रति है. की दर से देना चाहिए । रासायनिक उर्वरकों में नत्रजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा खेत में नालियाँ या थाले बनाते समय देते हैं । नाइट्रोजन की शेष मात्रा दो बराबर भागों में बांट कर खड़ी फसल में जड़ों के पास बुआई के 20 तथा 45 दिनों बाद देना चाहिए । बोरान, कैल्शियम तथा मालीब्डेनम का 3 मि.ग्रा. प्रति लीटर की दर से पर्णीय छिड़काव करने से फलों की संख्या तथा कुल उपज में वृद्धि होती है ।
बुआई का समय
मैदानी क्षेत्रों में खरबूजा की बुआई 10-20 फरवरी के बीच में तथा पहाड़ी क्षेत्रों में अप्रैल से मई तक की जाती है । नदियों के कछार में इसकी बुआई नवम्बर में अथवा जनवरी के अंतिम सप्ताह में करते हैं । दक्षिण एवं मध्यम भारत में इसकी बुआई अक्टूबर-नवम्बर में की जाती है ।
बीज की मात्रा
औसतन एक हैक्टेयर क्षेत्रफल के लिए 3-4 किलोग्राम बीज की आवश्यकता पड़ती है ।
बुआई की विधि
मैदानी क्षेत्रों में खरबूजा की बुआई के लिए 1.5-2.0 मीटर की दूरी पर 30 से 40 से.मी. चैड़ी नालियां बनाते हैं । बीज की बुआई नाली के किनारों (मेड़ों) पर 50-60 से.मी. की दूरी पर करते हैं । बीज को 1.5-2.0 से.मी. की गहराई पर बोना चाहिए । नदियों के किनारे गड्ढे में बुआई करते हैं । 60 ग 60 ग 60 से.मी. गहरा गड्ढा बनाकर उसमें 1:1:1 के अनुपात में गोबर की खाद मिट्टी तथा बालू मिलाते हैं । तत्पश्चात् एक गड्ढे में तीन बीज की बुआई करते हैं ।
सिंचाई
खरबूजा की फसल में सिंचाई की आवश्यकता अधिक पड़ती है । मौसम जब सूखा रहता है तोे आवश्यकतानुसार पानी लगाते हैं । सामान्यतः ग्रीष्म काल में उगाई जा रही फसल में 4-7 दिन के अंतराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए । नदियों के कछार में बोई गई फसल को केवल 1-2 सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है । सिंचाई केवल नालियांे में करते हैं । तीन अवस्थाओं तना बढ़ते समय, फूल आने से पहले तथा फल विकास की अवस्था पर पानी की कमी होने पर उपज में भारी कमी हो जाती है । फल पकते समय सिंचाई नहीं करनी चाहिए अन्यथा मिठास कम हो जाती है ।
खरपतवार नियंत्रण
वर्षा कालीन फसल में खरपतवार की समस्या अधिक होती है । जमाव से लेकर प्रथम 25 दिनों तक खरपतवार फसल को ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं । इससे फसल की वृद्धि पर प्रतिकूल असर पड़ता है तथा पौधे की बढ़वार रुक जाती है । अतः खेत से समय≤ पर खरपतवार निकालते रहना चाहिए । रासायनिक खरपतवारनाशी के रूप में बूटाक्लोर रसायन 2 कि.ग्रा. प्रति है. की दर से बीज बुआई के तुरन्त बाद करते हैं । खरपतवार निकालने के बाद खेत की गुड़ाई करके जड़ों के पास मिट्टी चढ़ाना चाहिए जिससे पौधों का विकास तेजी से होता है ।
फलों की तुड़ाई एवं उपज
जब फल पूरी तरह जातीय गुण के अनुरूप पक जाएं तभी तुड़ाई करना चाहिए । तुड़ाई के लिए फलों के पके होने की पहचान निम्नलिखित लक्षणों को देखकर की जा सकती है:
- फल अंतिम छोर से पकना प्रारंभ करता है जिससे फल का रंग बदल जाता है और फल का छिलका मुलायम सा प्रतीत होता है ।
- पके हुए फल से कस्तूरी जैसी सुगंध आती है ।
- कभी-कभी फल तने से पूर्णतया अथवा आधा अलग हो जाता है ।
जब फल से जुड़ने वाला भाग पूर्णतया वृत्तीय घसाव को व्यक्त करने लगे, फल को पका हुआ माना जाता है । इसे ’’फूल स्लिप स्टेज’’ कहा जाता है । स्थानीय बाजारों के लिए ’’फूल स्लिप स्टेज’’ पर फल को तोड़ना उत्तम माना जाता है । ’’फूल स्लिप स्टेज’’ से पहले तोड़ा गया फल 2-3 दिनों तक रखा जा सकता है । फल की तुड़ाई दिन की गर्मी बढ़ने से पूर्व करना चाहिए और फल को ठण्डे स्थान पर रखना चाहिए । खरबूजा की अच्छी फसल से 150-200 कुन्टल प्रति हैक्टेयर तक उपज प्राप्त की जा सकता है ।
प्रमुख कीट एवं नियंत्रण
१.कद्दू का लाल कीट (रेड पम्पकिन बिटिल):
इस कीट की सूण्ड़ी जमीन के अन्दर पाई जाती है । इसकी सूण्ड़ी व वयस्क दोनों क्षति पहुंचाते हैं । प्रौढ़ पौधों की छोटी पत्तियों पर ज्यादा क्षति पहुंचाते हैं । ग्रब (इल्ली) जमीन में रहती है जो पौधों की जड़ पर आक्रमण कर हानि पहुंचाती हैं । ये कीट जनवरी से मार्च के महीनों में सबसे अधिक सक्रिय होते हैं । अक्टूबर तक खेत में इनका प्रकोप रहता है । फसलों के बीज पत्र एवं 4-5 पत्ती अवस्था इन कीटों के आक्रमण के लिए सबसे अनुकूल है । प्रौढ़ कीट विशेषकर मुलायम पत्तियां अधिक पसंद करते हैं । अधिक आक्रमण होने से पौधे पत्ती रहित हो जाते हैं ।
नियंत्रण:
सुबह ओस पड़ने के समय राख का बुरकाव करने से भी प्रौढ़ पौधा पर नहीं बैठता जिससे नुकसान कम होता है । जैविक विधि से नियंत्रण के लिए अजादीरैक्टिन 300 पीपीएम, 5-10 मिली/लीटर या अजादीरैक्टिन 5 प्रतिशत, 0.5 मिली/लीटर की दर से दो या तीन छिड़काव करने से लाभ होता है । इस कीट का अधिक प्रकोप होने पर कीटनाशी जैसे डाईक्लोरोवास 76 ईसी., 1.25 मिली/लीटर या ट्राईक्लोफेरान 50 ईसी., 1 मिली/लीटर की दर से 10 दिनों के अन्तराल पर पर्णीय छिड़काव करें ।
२.फल मक्खी:
इस कीट की सूण्डी हानिकारक होती है । प्रौढ़ मक्खी गहरे भूरे रंग की होती है । इसके सिर पर काले तथा सफेद धब्बे पाये जाते हैं । प्रौढ़ मादा छोटे, मुलायम फलों के छिलके के अन्दर अण्डा देना पसन्द करती है, और अण्डे से ग्रब्स (सूड़ी) निकलकर फलों के अन्दर का भाग नष्ट कर देते हैं । कीट फल के जिन भाग पर अण्डा देती है वह भाग वहां से टेड़ा होकर सड़ जाता है । ग्रसित फल सड़ जाता है और नीचे गिर जाता है ।
नियंत्रण:
गर्मी की गहरी जुताई या पौधे के आस पास खुदाई करें ताकि मिट्टी की निचली परत खुल जाए जिससे फलमक्खी का प्यूपा धूप द्वारा नष्ट हो जाए तथा शिकारी पक्षियों को खाने के लिए खोल देता है । ग्रसित फलों को इकट्ठा करके नष्ट कर देना चाहिए । नर फल मक्खी को नष्ट करने लिए प्लास्टिक की बोतलों को इथेनाल, कीटनाशक (डाईक्लोरोवास या कार्बारिल या मैलाथियान), क्यूल्यूर को 6ः1ः2 के अनुपात के घोल में लकड़ी के टुकड़े को डुबाकर, 25 से 30 फंदा खेत में स्थापित कर देना चाहिए ।
कार्बारिल 50 डब्ल्यूपी., 2 ग्राम/लीटर या मैलाथियान 50 ईसी, 2 मिली/लीटर पानी को लेकर 10 प्रतिशत शीरा अथवा गुड़ में मिलाकर जहरीले चारे को 250 जगहों पर 1 हैक्टेयर खेत में उपयोग करना चाहिए । प्रतिकर्षी 4 प्रतिशत नीम की खली का प्रयोग करें जिससे जहरीले चारे की ट्रैपिंग की क्षमता बढ़ जाए । आवश्यकतानुसार कीटनाशी जैसे क्लोरेंट्रानीप्रोल 18.5 एससी., 0.25 मिली/लीटर या डाईक्लारोवास 76 ईसी., 1.25 मिली/लीटर पानी की दर से भी छिड़काव कर सकते हैं ।
प्रमुख रोग एवं नियंत्रण
१.चूर्णील फफूंद:
रोक का लक्षण पत्तियां और तनों की सतह पर सफेद या धुंधले धुसर दिखाई देती है । कुछ दिनों के बाद वे धब्बे चूर्ण युक्त हो जाते हैं । सफेद चूर्णी पदार्थ अंत में समूचे पौधे की सतह को ढंक लेता है । जो कि कालान्तर में इस रोग का कारण बन जाता है । इसके कारण फलों का आकार छोटा रह जाता है ।
नियंत्रण:
इसकी रोकथाम के लिए रोग ग्रस्त पौधों को खेत में इकट्ठा करके जला देते हैं । फफूंद नाशक दवा जैसे ट्राइडीमोर्फ 1/2 मिली/लीटर या माइक्लोब्लूटानिल का 1 ग्राम/10 लीटर पानी के साथ घोल बनाकर सात दिन के अंतराल पर छिड़काव करें ।
२.मृदुरोमिल आसिता:
यह रोग वर्षा ऋतु के उपरांत जब तापमान 20-220 से.हो, तब तेजी से फैलता हैं। उत्तरी भारत में इस रोग का प्रकोप अधिक है । इस रोग से पत्तियों पर कोणीय धब्बे बनते हैं जो कि बाद में पीले हो जाते हैं । अधिक आर्द्रता होने पर पत्ती के निचली सतह पर मृदुरोमिल कवक की वृद्धि दिखाई देेती है ।
नियंत्रण:
बीजों को एप्रोन नामक कवकनाशी से 2 ग्राम दवा प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करके बोना चाहिए । इसकी रोक थाम के लिए मेटालैक्सिल $ मैंकोजेब 2.5 ग्रा./लीटर की दर से या डाइमेयामर्फ का 1 ग्राम/लीटर मैटीरैम का 2.5 ग्रा./लीटर पानी के साथ घोल बनाकर 7 से 10 दिन के अन्तराल पर 3-4 बार छिड़काव करें ।
३.खीरा मोजैक वायरस:
इस रोग का फैलाव, रस द्रव्य रोगी बीज का प्रयोग तथा एफीड कीट द्वारा होता है । इससे पौधों की नई पत्तियों में छोटे, हल्के पीले धब्बों का विकास सामान्यतः शिराओं से शुरू होता है । पत्तियों में मोटलिंग, सिकुड़न शुरू हो जाती है । पौधे विकृत तथा छोेटे रह जाते हैं । हल्के, पीले चित्तीदार लक्षण फलों पर भी उत्पन्न हो जाते हैं ।
नियंत्रण:
इसकी रोकथाम के लिए विषाणु-मुक्त बीज का प्रयोग तथा रोगी पौधों को खेत से निकाल कर नष्ट कर देना चाहिए । विषाणु वाहक कीट के नियंत्रण के लिए डाईमेथोएट (0.05 प्रतिशत) रासायनिक दवा का छिड़काव 10 दिनों के अंतराल पर करते हैं । फल लगने के बाद रासायनिक दवा का प्रयोग नहीं करते हैं ।
स्रोत-
- भा.कृ.अनु.प.-भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान पो.आ.-जक्खिनी (शाहंशाहपुर), वाराणसी-221 305,उत्तर प्रदेश