खरपतवार एक औषधीय विकल्प

कुदरत के दिये वरदानों में पेड़-पौधों का अपना ही महत्वपूर्ण स्थान हैं, चाहे वह खरपतवार ही क्यों न हों । ये मानवीय जीवन में युगों-युगों से अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं, जो हमारे शरीर को निरोगी बनाये रखने में औषधियों के रूप में कल्याणकारी सिद्ध हुए हैं । यही वजह है कि आज के आधुनिक युग में भी खरपतवारों को चिकित्सकों द्वारा मानव रोगोपचार हेतु उपयोग में लाया जा रहा है । जहां महंगी-महंगी दवाओं का असर नहीं हो रहा है, वहां खरपतवार औषधीय विकल्प के रूप में तथा त्वरित इलाज के साथ सामने आये हैं ।

भुई आंवला

यह एक अत्यन्त उपयोगी पौधा है, जो बरसात के मौसम में यहाँ वहाँ उगता है तथा शरद ऋतु में फलने के बाद ग्रीष्म ऋतु में फल सुखकर झड़ जाते हैं । यह भारत में सर्वत्र पाये जाते हैं । इसकी पत्तियों की डंडी के नीचे बिलकुल नन्हें-नन्हें आंवले की तरह के फल लगे होते हैं । यह यकृत शोध, पीलिया, सर्वांग शोथ, आन्त्रवण (अल्सर) आदि अनेक रोगों की चमत्कारिक औषधी है । इसमें शरीर के विजातीय तत्वों को दूर करने की अद्भुत क्षमता है । मुंह में छाले हों तो इनके पत्तों का रस चबाकर निगल लें या बाहर निकाल दें ।

स्तन में सूजन या गांठ हो तो इसके पत्तों का पेस्ट लगाने से बहुत आराम होता है । अगर वर्ष में एक माह भी इसका काढ़ा ले लिया जाये तो पूरे वर्ष लीवर की कोई समस्या ही नहीं होती । हेपीटाइटिस-बी, एवं सी के लिए यह रामबाण है । इसके लिए भुई आंवला, श्योनाक एवं पुनर्नवा इन तीनों को मिलाकर इसका रस लेवें ।

औषधीय प्रयोग
  • मासिक धर्म में इसके बीजों का चूर्णए चांवल के पानी के साथ दो या तीन बार पीने से अधिक रक्त का आना निश्चित ही बन्द हो जाता है तथा इसकी जड़ के चूर्ण को भी इसी प्रकार देने से लाभ होता है ।
  • इसके कोमल पत्तों को पीसकर दूधिया रस को घाव पर लगाने से घाव जल्दी भरता है । रगड़ पर लगाने से चोट का दर्द शान्त हो जाता है । इसके पत्तों को पीसकर उसमें सैंधा नमक मिलाकर लगाने से खुजली में लाभ होता है ।
  • इसके कोमल पत्तों और काली मिर्च ;चैथाई भागद्ध पीसकर उसकी जायफल के बराबर गोलियां बनाकर 2.2 गोली दिन में दो बार देने से मलेरिया ज्वर और बार.बार आने वाला ज्वर छूटता है अथवा पूरा पौधा उखाड़कर दिन में दो.दो पौधों का काढ़ा बनाकर पी लेवें ।
  • यकृत संबंधी समस्त रोगरू. छाया में सुखाया हुआ भुई आंवला को मोटा.मोटा कूटकर एवं 10 ग्राम को मिट्टी के बर्तन में एक गिलास पानी में पकाकर जब एक चैथाई से भी कम रह जायेए तब छानकर सुबह खाली पेट व रात्रि के भोजन से एक घण्टा पहले सेवन करें ।
  • आंतो में संक्रमण होने पर अल्सर होने पर इसके साथ दूब को भी जड़ सहित उखाड़कर ताजा.ताजा आधा कप रस लेने खून आना दो.तीन दिन में ही बन्द हो जाता है ।

 

दूधी

निचली पहाड़ियों पर तथा मैदानी भागों में दूधी के स्वयंजात प्रसरण शोल क्षुपे पाये जाते हैं । दूधी के दो भेद भी पाये जाते हैं । छोटी दूधी और बड़ी दूधी । रंग भेद से दूधी भी सफेद तथा लाल दो प्रकार की होती हैं । दूधी की कोमल शाखाओं को तोड़ने से सफेद दूध जैसा पदार्थ निकलता है । लाल दूधी की शाखाएं लाल और सफेद की हरापन लिए सफेद होती हैं । पत्तियाँ महीनए अभिमुखए फूल हरे या गुलाबी गुच्छों में लगते हैं तथा फल और बीज दोनों ही बहुत छोटे होते हैं । बड़ी दूधी का पौधा 1.2 फुट ऊँचा होता है । पत्तियाँ एक से डेढ़ इंच लम्बी तथा आधा इंच से कुछ ही कम चैड़ी होती हैं ।

औषधीय प्रयोग
  •  छोटी दूधी के दूध से सलाई को तर करके रतौंधी के रोगी के नेत्रों से सलाई को अच्छी प्रकार फिरा दें । कुछ देर बाद नेत्रों में बहुत वेदना होगी जिसके शान्त होते ही रतौंधी रोग जड़ से चला जाता है ।
  • इसके पंचांग के स्वरस तथा कनेर के पत्तों के रस को मिलाकर सिर के गंज पर घिसने से बाल सफेद होना बंद हो जाते हैं एवं गंजापन दूर होता है ।
  •  छाया शुष्क दूधी में बराबर की संेगरी मिश्री मिलाकर खूब महीन चूर्ण कर लें । प्रातः सांय चाय का चम्मच भर चूर्ण गाय के दूध के साथ लेने से नक्सीर, गर्मी इत्यादि दूर होती है ।
  • चेहरे पर मुहांसों और दाद पर इसका दूध लगाने से आराम होता है । दूधी की जड़ दो ग्राम की मात्रा में पान में रखकर चूसने से हकलापन दूर होता है ।
  • इसके पत्तों के चूर्ण या बीजों की फंकी देने से अतिसार में लाभ होता है और बच्चों के पेट के कीड़े भी मर जाते हैं । दूधी को 10 ग्रा. सुबह-सांय जल के साथ पीसकर पीने से अतिसार में लाभ होता है । कुछ दिनों तक सेवन करने से आंतों को बल मिलता है ।
  • ताजी दूधी या सूखी हुई दूधी लेकर बारीक पीसकर इसमें गाय का मक्खन घोल लें । इसका लेप खुजली के स्थान पर करें और चार घण्टे बाद साबुन से धो डालें । कुछ दिन के सेवन से ही सब प्रकार की खुजली दूर हो जाती है ।
  • दूधी की कुछ पत्तियों को पीसकर 5-7 काली मिर्च मिलाकर सांप के काटे हुए व्यक्ति को खिलाने से सांप का विष भी उतर जाता है ।
  • हानि: इसका अधिक प्रयोग हृदय के लिए हानिकारक है ।

 

सत्यानाशी

यह एक अमेरिकन वनस्पति है, परन्तु भारतवर्ष में अब यह सब जगह उत्पन्न होगी है । इसका फल चैकोर, कांटे वाला तथा प्यालेनुमा होता है, जिसमें राई के समान छोटे-छोटे काले बीज भरे होते हैं । इसके पूरे पौधे पर कांटे होते हैं । सत्यानाशी का पौधा 2-4 फुट ऊँचा, पत्र लम्बे कटे-कटे, कांटे युक्त, शिरायें मोटी और सफेद होती हैं । इसकी जड़ में बबेरीन, प्रोटोपिन नामक क्षार, बीजों में 55-26 प्रतिशत तक अरूचिकर तेला होता है ।

यह कफ-पित्त हर है । बाह्य प्रयोग में इसका दूध, स्वरस, तथा बीज तेल, व्रणशोधन, व्रणरोपण तथा कुष्ठघ्न होता है । इसकी जड़ का लेप शोथहर और विषघ्न है तथा बीज वेदनास्थापन गुण वाला है । इसके जड़ का स्वरस रक्तशोधक व कृमिनाशक तथा दूध शोथहर है ।

औषधीय प्रयोग
  • इसके दूध की एक बूंद में, तीन बूंद घी मिलाकर नेत्रों में अंजन करने से नेत्र शुष्क रोग, अधिमंथ रोग और नेत्रों का अंधापन दूर होता है । सुवर्ण क्षीरी का क्षार एक ग्राम, 50 ग्राम गुलाब जल में मिलाकर प्रतिदिन दो बार दो – दो बूंद नेत्रों में डालने से नेत्र शोथ, नेत्रों की लाली, धुंध, जाली तथा नेत्रफूली दूर होकर नेत्रों को लाभ पहंुचाता है ।
  • इसका तेल विरेचक है, परन्तु सब मनुष्यों पर इसका प्रभाव समान नहीं होता, किसी को 3 – 4 दस्त होते हैं, तो किसी को 15 – 16, परन्तु इसके प्रयोग से प्रारंभ में ही वमन हो जाने पर भी निर्बलता नहीं आती ।
  • मूत्रनली में यदि जलन हो तो इसके 20 ग्राम पंचांग 200 ग्राम पान में भिगोकर तैयार हिम या फांट पिलाने से मूत्रवृद्धि होती है और मूत्रनली की जलन मिटती है ।
  • नपुंसकता दूर करने के लिए कटुपर्णी की एक ग्राम छाल तथा बरगद का दूध दोनों को गरम कर चने के बराबर गोलियाँ बनाकर आधे माह तक पान के साथ प्रातः सांय सेवन करने से नपुंसकता दूर होती है ।
  • सुवर्णक्षीरी इस को पुराने व्रण एवं खुजली में लगाने से लाभ होता है । छाले, फोड़े फुंसी, विस्फोटक, खुजली दाह, फिरंग, उपदंश, आदि पर इसके पंचांग का रस या पीला दूध लगाने से लाभ होता है । कुष्ठ रोग में इसके स्वरस में थोड़ा नमक डालकर लम्बे समय तक सेवन से लाभ होता है ।
  • दाद में इसके पत्र स्वरस या तेल को लगाने से शांति मिलती है । विसर्प में भी इसका तेल लगाने से लाभ होता है । न भरने वाले घावों (व्रण) पर इसका दूूध लगाने से पुराने और बिगड़े हुए फोड़े स्वच्छ हो जाते हैं ।

 

शतावर

यह यूरोप एवं पश्चिमी एशिया का देशज है । इसकी खेती 2000 वर्ष से भी पहले से की जाती रही है । शताब्दी की बेल पूरे भारतवर्ष में पाई जाती है । इसकी कंटक युक्त झाड़ीनुमा आरोहिणी लता होती है, जिससे फूल मंजरियों में एक से दो इंच लम्बे एक या गुच्छे में लगती है और फल मटर के समान पकने पर लाल रंग के होते हैं । इसकी जड़ में सफेद और लंबे कन्द होते हैं, यह लम्बे कन्द ही बाजार में शतावर के नाम से बिकती है । भारत के ठण्डे प्रदेशों में इसकी खेती की जाती है । परम्परागत रूप से शतावरी को महिलाओं की जड़ी बूटी माना गया है । हालांकि यह पौधा पुरुषों के हार्मोन लेवल को बढ़ा कर उनकी कामुकता में भी इजाफा करता है ।

औषधीय प्रयोग
  • यदि नींद न आने की समस्या है तो शतावरी की जड़ को खीर के रूप् में पकाकर उसमें थोड़ा गाया का घी डालकर ग्रहण करने से तनाव मुक्त होकर अच्छी नींद आती है ।
  • घी में शतावरी के कोमल पत्रों का शाक बनाकर सेवन करने से रतौंधी दूर हो जाती है ।
  • शतावर की ताजी जड़ को कूट, रस निकाल उसमें बराबर तिल का तेल डालकर उबाल लेना चाहिए । इस तेल की सिर पर मालिश करने से मस्तिष्क पीड़ा और आधा-शीशी मिटती है ।
  •  दूध के साथ इसके चूर्ण की फंकी देने से स्त्री का दूध बढ़ता है अथवा शतावरी को गाय के दूध में पीसकर सेवन करने से दूध मधुर और पौष्टिक भी हो जाता है ।
  • गीली शतावर को दूध के साथ पीस-छानकर दिन में 3-4 बार पीने से रक्त अतिसार मिलता है ।
  • इसका पाक बनाकर सेवन करने से अथवा दूध के साथ इसके चूर्ण की खीर बनाकर खाने से पुरुषार्थ बढ़ता है । शतावरी का घृत मर्दन करने से शरीर की निर्बलता मिटती है ।
  • इसके 20-50 ग्राम रस में बराबर गाय का दूध मिलाकर पीने से पुरानी पथरी शीघ्रता से गल जाती है । यदि रोगी को मूत्र से संबंधित विकृति हो तो शतावरी को गोखरू के साथ लेने से लाभ मिलता है ।

 

 

स्रोत-

  • जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्व विद्यालय जबलपुर
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