फसलोत्पादन में खरपतवार ऐसे लुटेरों की तरह हैं, जो फसलों के लिए प्रयोग किये गये पोषक तत्वों व पानी आदि चुरा लेते हैं और सौर प्रकाश व स्थान के लिए भी प्रतिस्पर्धा करते हैं। इसके अलावा खरपतवार फसलों की कई बीमारियों और कीड़ों को फैलाने के लिए भी जिम्मेंदार होते हैं। फलस्वरूप हमारी फसलें कमजोर हो जाती हैं और हमारे द्वारा प्रयोग किये गये संसाधनों (पोषक तत्व, दवाओं, पानी इत्यादि) व उन पर खर्च होने वाली उर्जा का भारी नुकसान होता है।
खरपतवार नियंत्रण कृषि की बहुत महत्वपूर्ण प्रक्रियाओं में से है और इसके फलस्वरूप भी अत्यधिक कार्बन-डाई-आक्साइड प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वातावरण में उत्सर्जित होती रहती है। खरपतवार नियंत्रण की विभिन्न विधियों के उचित समायोजन तथा आवश्यकतानुरूप प्रभावी प्रयोग करके हम बहुत सारी ऊर्जा की बचत करके वातावरण में उत्सर्जित होने वाली कार्बन-डाई-आक्साइड की मात्रा को कम कर सकते है।
मृदा सौरीकरण
मूल्यवान फसलों एवं फसल नर्सरी में खरपतवार व मृदा जनित फसल रोगों के नियंत्रण के लिये यह एक प्रभावी एवं पर्यावरण के लिये मित्रवत विधि है। इस विधि में गर्मियों के दिनों (अप्रैल, मई, जून) में उचित मृदा नमीयुक्त तैयार खेत को पारदर्शी पालीइथाइलीन सीट से ढककर चारों तरफ से सील कर देते हैं। फलस्वरूप अधिकाधिक सौर उर्जा (उष्मा) मिट्टी के अंदर प्रवेश करके उसका तापमान बढ़ा देती है। जबकि रात के समय यही पालीइथाइलीन सीट मिट्टी की उष्मा को बाहर निकलने से रोकती भी है। इस प्रकार मृदा का तापमान 50ह्सेन्ट्रीग्रेड या इससे भी अधिक पहुँच जाता है।
लम्बे समय तक उच्च तापमान बने रहने से मृदा में पाये जाने वाले कई प्रजातियों के खरपतवारों के बीज मर जाते हैं। इसके अलावा मृदा जनित रोग फैलाने वाले कई तरह के कवक, निमेटोड तथा जीवाणु भी नष्ट हो जाते हैं। इससे फसलों की वृद्धि और विकास पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ता है। मृदा सौरीकरण से कार्बन-डाई-आक्साइड का उत्सर्जन नगण्य होता है और पर्यावरण को कोई विशेष नुकसान नहीं पहुचता है। अतः एकीकृत खरपतवार, बीमारी व कीडों के प्रबन्धन में इस विधि को विशेष स्थान दिया जाना चाहिए।
कृषि में शामिल बहुत सी सस्य क्रियायें फासलोत्पादन में वृद्वि के साथ-साथ खरपतवारों, फसल रोग व कीटों के नियंत्रण में भी काफी सहयोग करती हैं, भले ही वह प्रत्यक्ष रूप से हमें दिखाई नहीं पड़ता है। कुछ प्रमुख सस्य क्रियायें निम्न हैंः
फसल चक्र
किसी एक खेत में अलग-अलग वर्षों में अलग-अलग फसलों को हेर फेर करके इस प्रकार उगाना जिससे मृदा की उर्वरता बनी रहे तथा किसी एक तरह के खरपतवारों, बीमारी व कीड़े का निरंतर बढ़ोत्तरी न हो पाये। इसके अलावा मृदा कार्बन की मात्रा बढ़ाने में भी फसल चक्र सहयोगी होता है। मृदा कार्बन की मात्रा बढ़ाने में अरहर, कपास, गन्ना जैसी गहरी जड़ वाली फसलों के साथ फसल चक्र अधिक प्रभावी होगा। फसल चक्र में जैविक-नत्रजन-स्थिरीकरण करने वाली दलहनी फसलों के समावेश से रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग कम करना पड़ेगा और मृदा कार्बन स्तर में भी वृद्धि होगी ।
अंतर्वर्ती फसलें
ऐसी फसलें जो कि पंक्तियों में बोई जाती हैं तथा उनकी पंक्ति से पंक्ति की अधिक दूरी में अंतर्वर्ती फसलों को उगाकर रिक्त पड़े स्थान पर खरपवारों की वृद्धि को रोका जा सकता है। उदाहरण स्वरूप मक्के की फसल के साथ लोबिया लगाने से मक्के में खरपतवारों की वृद्धि को रोकने के साथ-साथ कुल उत्पाकता में भी वृद्धि होती है। इसके अलावा कुल उत्पादकता में वृद्धि होने से खाद्यान्न उत्पादन हेतु अतिरिक्त भूमि की आवश्यकता भी कम होती है।
बुवाई तिथि में फेरबदल व पौध सघनता
कुछ फसलों में शीघ्र बुवाई करने और कुछ में देर से करने पर भी खरपतवारों, फसल रोगों व कीटों के नियंत्रण में भी काफी सहयोग मिलता है। कुछ फसलों जैसे गेहूं की फसल को एक सीमा के अंदर घना बोने से खरपवारों समन्वित कृषि प्रणाली प्रबन्धन 51 की वृद्धि के लिये कम स्थान मिलता है। एक अध्ययन के अनुसार कतार से कतार की दूरी कम करके, फसल की सघनता बढ़ाकर बुवाई करने से खरपतवारों के प्रभावी नियंत्रण के साथ-साथ उपज में 15 प्रतिशत तक की वृद्धि पाई गई है अ©र यहाँ पर शाकनाशियों का उपयोग भी न्यूनतम मात्रा में करना पड़ता है।
मृदा बिछावन (मल्चिंग) व बिछावन फसलों का प्रयोग
वर्तमान में वातावरण की कार्बन-डाई-आक्साइड को कम करने हेतु मृदा में कार्बन की अधिक से अधिक मात्रा को संरक्षित करने पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है। कतार में बोई गयी फसलों में मृदा बिछावन (जीवित फसलें या मृत जैव ढ़ेर) के समुचित प्रयोग से खरपतवार नियंत्रण के साथ-साथ फसलों की मृदा जनित बीमारियों में कमी, मृदा उत्पादकता में वृद्धि तथा वातावरण में कार्बन-डाई-आक्साइड की मात्रा को कम करने में काफी सहयोग मिलता है।
मृदा बिछावन के लिए हरी खाद, रूँधने वाली या स्मूदर फसलें, जीवित बिछावन (कुछ अंर्तवर्ती फसलें जैसे लोविया, मूँग इत्यादि), विभिन्न फसलों के अवशिष्ट जैव ढ़ेर (भूसा, पुवाल इत्यादि) व पेपर आदि का प्रयोग किया जाता है।उपरोक्त सस्य क्रियाओं में हमें अधिक अतिरिक्त ऊर्जा खर्च किये बिना ही अधिक फासलोत्पादन व कईतरह के खरपतवारों, फसल रोग व कीटों का नियंत्रण प्राप्त होता है तथा कार्बन की अधिक से अधिक मात्रा मृदा में संरक्षित करने में मदद मिलती है।
उचित पोषक तत्व प्रबंधन व जल निकास
फसलों में पोषक तत्वों का उचित प्रबंधन करना होगा जिससे उपयोग किये गये नत्रजन, फास्फोरस, पोटाश आदि पौधों को अधिकाधिक मात्रा में उपलब्ध हो सकें और नाइट्रस आक्साइड के रूप में उत्सर्जन कम से कम हो सके। उचित जल निकास प्रबंधन की व्यवस्था करके मृदा से मिथेन और नाइट्रस आक्साइड का उत्सर्जन कम किया जा सकता है।
खरपतवारों का जैविक नियंत्रण
जैविक नियंत्रण, खरपतवार नियंत्रण का एक प्रकृति प्रदत्त तरीका है जिससे पर्यावरण प्रदूषण के साथ-साथ ग्लोबल वार्मिंग को रोकने में भी मदद मिलेगी। इस विधि में किसी खरपतवार के कुछ विशिष्ट प्राकृतिक शत्रुओं (जैसे परजीवी कीड़े, रोगकारक कवक, जीवाणु आदि) के उपयोग द्वारा इसे नष्ट किया जाता है। विश्व स्तर पर आक्रामक विदेशी खरपतवारों के नियंत्रण हेतु इस विधि का सफलता पूर्वक उपयोग किया जा रहा है। भारत में भी गाजर घास (पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस) के नियंत्रण हेतु, मेक्सिको से आयातित जाइगोग्रामा बाईकोलोराटा नामक भृंग कीट का वृहद् स्तर पर उपयोग हो रहा है।
इसके अलावा मिकानिया माइ्क्रेन्था नामक खरपतवार, जो कि भारत के दक्षिण-पश्चिम घाट एवं असम के जंगलों में काफी आक्रामक हो चुका है, के नियंत्रण हेतु पक्सीनिया स्पेगैजिनी नामक गेरूवा रोग फैलाने वाले कवक को हाल के वर्षों में छोड़ा गया है। अन्य विदेशी आक्रामक खरपतवारों जैसे कि लैण्टाना कैमरा, क्रोमोलिना ओडोरेटा आदि के जैविक नियंत्रण हेतु प्रयास जारी हैं।
कुछ प्रमुख विदेशी खरपतवारों जैसे कि गाजर घास, लैन्टाना कैमरा एवं जलकुम्भी (आईकार्निया क्रेसिप्स) आज भारत के 52 जगपाल सिंह एवं सहयोगी जन अधिकांश भू-भागों पर खतरनाक स्तर तक फैलकर यहां की उत्पादकता को कम कर रहे हैं और परिस्थितिकीय तंत्र के लिए भी खतरा बन गये हैं। यदि इन खरपतवारों के नियंत्रण हेतु हम यांत्रिक व रासायनिक विधियों का प्रयोग करते हैं तो करोड़ो रूपये खर्च के साथ-साथ कार्बन-डाई-आक्साइड के उत्र्सजन में भारी वृद्धि होगी। अतः इन आक्रमक जैव आतंकियों के नियंत्रण हेतु अधिकाधिक मात्रा में उनके परजीवी कीड़ों व रोगकारकों को आयातकरने की तत्काल आवश्यकता है।
फसल शत्रुवों के वैधानिक नियंत्रण पर विशेष ध्यान
आज द्रुत गति से बढ़ रहे अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक आवागमन के कारण सारा संसार एक वैश्विक गांव के रूप में सिमट गया है। इन बढ़ी हुई आवागमन गतिविधियों के कारण बहुत सारे जीवों का उनके उत्पत्ति स्थान से निकलकर नये देशों या क्षेत्रों में पहुंचने की संभावना भी बढ़ गई है। खरपतवार, फसल रोगकारक व कीट इन्हीं जीवों में से कुछ प्रमुख हैं। कालान्तर में इन्हीं फसल शत्रुवों में से कुछ अपने नये निवास स्थान या देश में कब्जा जमाकर एक जैविक आतंकी का रूप ले सकते हैं।
उदाहरण स्वरूप गेहूं का मामा (फैलेरिस माइनर), लैण्टाना कैमरा, जलकुम्भी (आईकार्निया क्रेसिप्स) आदि विदेशी उत्पत्ति वाले खरपतवारों ने आज हमारे देश में भारी आतंक हो गया है। गेहूं के लिये ’यू.जी. 99‘ नामक नये काला गेरूआ (किट्ट) कवक विभेद को हमारे देश में आने का खतरा बना हुआ है।
अतः आज हमें अपने प्रमुख व्यापारिक केन्द्रों पर अपनी वैधानिक नियंत्रण व्यवस्था को और चुस्त-दुरूस्त करने की जरूरत है, जिससे कि इस तरह के अवांछित जैविक फैलाव को रोका जा सके। इसके अलावा नये संभावित रोग कारकों व फसल कीड़ों के विभेदों के प्रबंधन हेतु हमें पहले से ही रणनीति बनानी होगी। इस प्रकार भविष्य में इन संभावित विदेशी आक्रामक जीवों के नियंत्रण हेतु हमें अतिरिक्त उर्जा खर्च नहीं करनी पडे़गी और हमारा पर्यावरण भी सुरक्षित रहेगा।
जैव ईंधन फसलों की खेती को बढ़ावा
ग्रीन हाउस प्रभाव को रोकने के लिये जैव ईंधन (बायो फ्यूल) फसलें जैसे जट्रोपा, मीठा ज्वार व मक्का इत्यादि के उपयोग की काफी संभावनायें है । ये फसलें पहले तो वातावरण की कार्बन-डाई-आक्साइड को संचित करके जैर्व इंधन बनाने में उपयोग की जायेंगी, तत्पश्चात् इन्हें अकेले या पेट्रोलियम के साथ मिश्रित रूप से जलाया जायेगा और विभिन्न उर्जा कार्यो के लिये उपयोग किया जायेगा। इस प्रकार वातावरण में अतिरिक्त कार्बन-डाई-आक्साइड का उत्सर्जन नहीं होगा। जबकि जीवाष्म ईंधन (पेट्रोल, कोयला इत्यादि) के जलाने से मृदा के गर्भ में संचित कार्बन वातावरण में कार्बन-डाई-आक्साइड की मात्रा को केवल बढ़ाता ही है।
जैव ईंधन के लिये कुछ ऐसी फसलों या खरपतवारों का उपयोग ज्यादा लाभकारी होगा जो कि खाद, पानी व दवाओं के प्रयोग के बिना ही अनुपयोगी भूमि (बंजर भूमि, ऊसर भूमि, नदियों का कछार इत्यादि) पर आसानी से उगाये जा सकें व बार-बार उत्पादन देते रहें। इस विषय पर नये सिरे से योजना बनाने की आवश्यकता है।
स्रोत-
- भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद