केले की खेती / Banana cultivation-मध्यप्रदेश

परिचय

केला उष्ण जलवायु का एक मुख्य फल है इसकी खेती मध्यप्रदेश के बड़वानी, खण्डवा, धार, खरगोन एवं राजगढ जिले में बहुतायत से की जाती हैं। मध्यप्रदेश में इसका कुल रकबा लगभग 33000 हे. एवं उत्पादन 13,02,812 टन है जबकि उत्पादकता 40-46 टन प्रति हेक्टेयर हैं। केले की फसल आर्द्र एवं गर्म वातावरण में अच्छा उत्पादन देती है। इसे लगाने के लिये वायु अवरोधक के रूप में जहाँ बड़े जलाशय हो वह स्थान उत्त्म है। बुरहानपुर जिला केला उत्पादन में प्रदेश में अग्रणी स्थान रखता हैं। कुल उत्पादन का अधिकांश भाग इसी क्षेत्र से आता हैं।

 

भूमि

सभी प्रकार की भूमि जिसमें जीवांश की अधिकता हो एवं जल निकास अच्छा हो उत्तम हैं। भारी एवं चिकनी मिट्टी की तुलना में मध्य दर्जे की भूमि अधिक अच्छी मानी जाती हैं।

 

केले की किस्में

केले की मुख्य उन्नत किस्में निम्नलिखित है:

१.रोवक्टा

पौधा उंचा 3.5 मीटर तक, फल आकर्षक व मीठे होते है। प्रति पौधा उपज 50 कि.ग्रा. तक प्राप्त होती है। पश्चिम क्षेत्र के लिये यह किस्म उपयुक्त हैं।

२.भुसावल या बसराई बौना

यह एक लोकप्रिय बौनी किस्म है। पौधा 1.5 मीटर से 1.8 मीटर तक उंचा होता हैं। फल मीठे, बड़े एवं मटमैले पीले रंग के होते हैं। प्रति पौधा उपज 25 कि.ग्रा. तक प्राप्त होती है। सभी उन्नत किस्मों में भुसावली या बसराई किस्में प्रमुख स्थान रखती हैं। 60 से 70 प्रतिशत तक अन्य किस्मों में प्रदेश में किस्म ग्राणदंड – 9 एवं श्रीमती का विशेष स्थान हैं।

३.पूवन या चम्पा

यह भी बौनी किस्म हैं। फल का आकार दोटा होता है। दूर के बाजार के लिये उपयुक्त हैं। इसकी छाल पीली एवं पतली होती है। कुल केला उत्पादन का आधे से अधिक हिस्सा इसी किस्म का होता हैं। प्रति पौधा उपज 20 से 22.5 कि.ग्रा. तक प्राप्त होती हैं।

४.हरी छाल

इसका पौधा उंचा होता है। फल बरसाई की भाँति होता है परंतु पकने के बाद भी फल हरा रहता हैं। गूदे से सुगंध आती हैं। फल का उपयोग सब्जी के रूप् में भी किया जाता है प्रति पौधा फल 25 से 27 कि.ग्रा. तक प्राप्त होता हैं।

५.बत्तीसा

यह सीधी एवं उंची बढने वाली किस्म हैं। सब्जी बनाने के लिये उत्तम हैं। रेशा रहित होने के कारण अन्य उपयोग में लाई जा सकती हैं। जैसे चिप्स एवं आटा आदि।

 

केले का प्रवर्धन

प्रवर्धन प्रमुख रूप से प्रकंद या सकर्स के द्वारा किया जाता है परंतु आजकल टिशु कल्चर (उत्तकीय प्रवर्धन विधि) भी काफी प्रचलित हैं। सर्करा द्वारा प्रवर्धन के लिये स्वस्थ एवं सत्य रूप में मातृ पौधे से तलवारनुमा पतली पत्ती के सर्करा का चुनाव किया जाता हैं। सर्करा का वनज 600 से 750 ग्राम होना चाहिये। केला मुख्य रूप से सकर्स के द्वारा लगाया जाता है और इस तरह से लगभग 90 प्रतिशत तक प्रवर्धन सकर्स के द्वारा ही किया जाता हैं।
टिशु कल्चर प्रवर्धन के लिये प्रयोगशाला में तैयार पौधों को खरीद कर लगाया जा सकता है। ये पौधे छोटे होने के कारण लाने ले जाने में अधिक उपयुक्त है एवं इनमें शुद्धता भी अधिक होती हैं। टिशु कल्चर के द्वारा प्रवर्धन के परिणाम काफी आशाजनक एवं उत्तम हैं। परंतु इसका प्रयोग लगभग 10 प्रतिशत तक ही सीमित है जिसका कारण तकनीकी जानकारी का अभाव एवं महंगी रोपण सामग्री हैं।

 

भूमि की तैयारी

उपरोक्तानुसार वर्षा पूर्व खेल भली भाँति तैयार करें ताकि खेत में खरपतवार न हों और खेत की जल धारण क्षमता अच्छी हो, तथा गड्ढे भरकर तैयार कर लें। अंतिम जुताई के समय प्रति हेक्टेयर 250 से 300 क्विंटल गोबर की पकी हुई खाद मिट्टी में मिलावें एवं किस्मों के अनुसार बौनी किस्मों को 2 ग 1, 1/2 मीटर पर एवं उंचे किस्मों को 2 ग 2 मीटर पर गड्ढे तैयार करें। गड्ढे 50 से.मी. आकार के खोदें। भरपूर उत्पादन के लिये पर्याप्त मात्रा में फसल पोशण आवश्यक है प्रति हेक्टेयर 200-300 क्विंटल पकी हुई गोबर की खाद, खेत तैयार करते समय दें तथा रासायनिक खाद इस प्रकार दें:-

समय

नत्रजन ग्राम/पौधा

स्फुरग्राम/पौधा

पोटाश ग्राम/पौधा

रोपण  20  120 120
सितम्बर  30  –
अक्टूबर  40  –
नवम्बर  50  –
मार्च  60  – 120

 

खाद एवं उर्वरक की मात्रा

बारिश पूर्व गड्ढे भरकर तैयार कर लें एवं एक माह तक अच्छी वर्षा होने के बाद अगस्त माह में रोपण कार्य करें। प्रति गड्ढा एक सकर लगायें एवं उपर तक मिट्टी चढायें ताकि गड्ढो में पानी न भरें।

 

सिंचाई

केले की फसल आर्द्र मौसम में अच्छा उत्पादन देती है अतः यह स्थिति सुनिष्चित करें। बारिश में सिंचाई की विशेष आवश्यकता नही हैं परंतु सूखा रहने पर मिट्टी के प्रकार के अनुसार 15 से 20 दिनों में यह जरूरी हैं। फल लगने के बाद आर्द्रता में कमी नुकसानदायक होती हैं। इसी तरह पौधों के आसपास पानी भरा रहना पौधों के स्वास्थ्य के लिये खतरनाक हैं।

 

फसल को सहारा देना

केले की जड़े उथली होने के कारण फलों का भार एवं तेज हवाओं के झोंके पौधे नही सह पाते हैं। एवं उखड़ जाते है। अतः घेर में फल लगने के साथ ही घेर को लकड़ी का सहारा दें एवं पौधों पर मिट्टी चढावें। पौधों से अनावश्यक एवं सूखी पत्तियों को काट कर अलग कर दें। इसी प्रकार घेरे में फल लगने के बाद बचे हुए आगे के सिरों को काट कर हटा दें।

 

उपज

किस्म के अनुसार फल, रोपण के 12 से 15 महिनों में प्राप्त होते हैं। मुख्य फसल अक्टूबर से जनवरी तक प्राप्त होती हैं। इसकी उपज 30 से 45 टन प्रति हेक्टेयर तक मिलती है जब कि पेड़ी की फसल 6 से 8 महिने में प्राप्त होती हैं। इसकी उपज कुछ कम आती है परंतु रोपण के अन्य खर्चे बचने के कारण लाभप्रद है। हालाँकि खेत बदल कर पुनः नया रोपण करना ही उत्तम है।

 

पेड़ी की फसल

केले का पौधा अपने जीवन काल में एक बार फलता है । अतः एक पौधे से फसल लेने के बाद उसको काट दें। उसके स्थान पर उसी पौधे के एक सकर को पौध के रूप मे पुनः बढने दें। जब मुख्य फसल में फूल आना प्रारंभ हो तो एक तलकरनुमा पतली पत्ती वाला संकर बढने दें। जो कि मुख्य फसल कटने के बाद 6 से 8 माह में पुनः एक फसल देगा। इसे ही पेड़ी की फसल कहा जाता है। इस फसल का पूरा पोषण पुनः करे जो कि पूर्व से लगभग आधी मात्रा के बराबर होगा । थाले बना कर, थालों में खाद दें। कही-कही पर दो पेड़ी की फसल भी ली जाती है जो कि कदापि उचित नही हैं।

 

पौध संरक्षण

कीट प्रबंधन एवं नियंत्रण

१.बीविल कीट

यह कीट जमीन से निकल कर जड़ क्षेत्र के पास छेद बनाकर मुख्य तने में घुस जाता है। तथा अंदर का हिस्सा खाता है। जिसके फलस्वरूप पौधा सूखने लगता है। इसके नियंत्रण के लिये पौधे लगाने के पूर्व सकर एवं गड्ढे को उपचारित करें।
1. फाॅस्फोमिडान 0.03 प्रतिशत या रोगर दवा 0.9 प्रतिशत का छिड़काव करें एवं इसी दवा में डुबा कर सकर का रोपण करें।
2. दवा उपचार के बाद भी पौधे सूखते दिखने पर संपूर्ण पौधा उखाड़ कर जला दें।

 

रोग प्रबंधन एवं नियंत्रण

१.पनामा रोग

यह एक कवक जनित रोग है जो कि पुरानी पत्तियों के किनारे सूखने से पता चलता हैं।
नियंत्रण
1. इस रोग का कोई नियंत्रण नही है।
2. स्वस्थ एवं रोग रहित मातृ पौधों के सकर का ही उपयोग करें।
3. पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर दें एवं खेत बदल कर फसल लगावें।

२.बन्ची टाॅप

यह वाइरस जनित रोग है। इसमें पत्त्यिाँ छोटी एवं सकरी रह जाती हैं। नई पत्तियाँ उपर की ओर मुड़ कर गुच्छा बना लेती हैं जिससे अफलन की स्थिति निर्मित हो जाती है।
नियंत्रण
1. इसका कोई उपचार नही हैं।
2. रोगगस्त पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर दें।
3. खेत बदलकर रोपाई करें।

३.एन्थ्रक्नोज

यह एक कवक जनित रोग है एवं फलों के उपर काले धब्बे पड़ जाते हैं जो बाद में सड़ने लगते हैं। नियंत्रण
डायथेन एम -45 दवा का 0.25 प्रतिशत का छिड़काव करें अथवा किसी अन्य ताम्रयुक्त फफूंदनाशक 2.5 से 3 प्रतिशत का छिड़काव समय-समय पर करें।

 

कम उपज के सम्भावित कारण

1. क्षेत्रवार सही किस्मों का चुनाव न करना।
2. कम गुणपत्ता के सकर्स का प्रयोग करना ।
3. खाद एवं उर्वरक की निर्धारित मात्रायें न देना एवं समयानुसार पोषण न देना।
4. अनावश्यक सकर्स को न निकालना एवं नियमानुसार पड़ी की फसल न लेना।
5. तेज़ हवाओं से बचाव हेतु उपयुक्त वायुरोधी पौधों को न लगाना ।
6. फसल चक्र न अपनाना एवं खेतों की सफाई न करना। फसल में कीट व्याधियों का प्रयोग बढना। ध्यान रखें अधिक उपज प्राप्त करने के लिये उपर दिये गये कार्यो को बिलकुल भी न करें।

नोट

1. चूँकि केला एक अत्यंत लंबी अवधि की फसल है अतः इसके साथ एक अंर्तवर्तीय फसल लेना अतिरिक्त आय के लिये आवश्यक है। केले की फसल की कतारों के बीच, शुरू के महीनों में लोबिया, प्याज, लहसुन, तरबूज, फूल, पत्तेदार सब्जियाँ, धनिया, उड़द एवं मूंग आदि फसलों को लगायें।
2. फसल से अत्याधिक जैविक अवशेष प्राप्त होता है, इससे जैविक खाद बनायें। इसके रेशों का भी विभिन्न उपयोग किया जा सकता हैं।
3. केले के फल से परिरक्षित पदार्थ (आटा, चिप्स, नमकीन आदि) बनाकर मूल्य संवर्धन करें तथा अतिरिक्त आय अर्जित करें।

 

Source-

  • Jawaharlal Nehru Krishi VishwaVidyalaya,Madhya Pradesh
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