कुसुम की खेती ( Safflower cultivation practices Madhya Pradesh)

परिचय (Introduction)

कुसुम/करडी रबी मौसम में उगायी जाने वाली बहुउपयोगी तिलहनी फसल हैं। इसके दानों में 29 से 33 प्रतिशत तेल, 15 प्रतिशत प्रोटीन, 15 प्रतिशत शक्कर, 33 प्रतिशत रेशा एवं 6 प्रतिशत राख पायी जाती हैं। प्रदेश में इसकी खेती 400 हेक्टेयर क्षेत्र में की जाती हैं तथा इससे 100 टन उत्पादन प्राप्त होता हैं, इसकी औसत उपज 250 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर हैं। कुसुम की जड़े जमीन में गहराई तक जाकर पानी सोख लेने की क्षमता रखती हैं जिससे इसको बारानी खेती के लिये विशेष उपयुक्त पाया गया हैं।

सिंचित क्षेत्र में कुसुम का पौधा कम सिंचाई में भी सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। सितम्बर माह में भूमि में पर्याप्त नमी होने से अन्य रबी फसलें जैसे गेहूँ चना इत्यादि की बुआई अधिक तापमान के कारण नही कर सकते। लेकिन कुसुम की फसल तापमान के लिये असंवेदनशील होने के कारण इन परिस्थितियों में बोकर भूमि में स्थित नमी का पूरा लाभ ले सकते हैं।

इसका तेल खाने के लिये अच्छा स्वादिष्ट होकर इसमें स्थित विपुल असंतृप्त वसीय अम्लों के कारण हृदय रोगियों के लिये विशेष उपयुक्त होता हैं। लिनोलिक अम्ल इन असंतृप्त वसीय अम्लों में प्रमुख होता है जो कि 78 प्रतिशत होता हैं। लिनोलिक अम्ल रक्त में कोलेस्ट्राल की मात्रा को नियंत्रित करता हैं। अतः इसका सेवन हृदय रोगियों के लिये उपयुक्त रहता हैं। कुसुम के हरे पत्तों की स्वादिष्ट सब्जी बनती हैं, जिसमें लौह तत्व तथा कैरोटीन की प्रचुर मात्रा होने के कारण अत्यंत स्वास्थ्यप्रद होती हैं।

कुसुम की सूखी लाल पंखुड़ियों से कई प्रकार का (खाने योग्य) रंग प्राप्त होता हैं। पंखुड़ियों से चाय के समान पेय पदार्थ बनाया जाता हैं जिसको कुसुम चाय कहा जाता हैं। यह चाय स्वाद एवं गंध में उत्तम होती हैं। यह चाय जोड़ो के दर्द, रक्त स्त्राव, हृदय-धमनियों के रोगों तथा चोटग्रस्त ऊतको के उपचार में लाभदायक होती हैं। इन पंखुड़ियों को भोजन में सुगंध व रंग के लिये मसालों के रूप में उपयोग में लाया जाता हैं।

 

कुसुम उत्पादन के लिए भूमि का चुनाव(Land selection for growing safflower)

फसल से अच्छा उत्पादन प्राप्त करने के लिये मध्यम काली से लेकर भारी काली भूमि उपयुक्त होती है, किन्तु फसल से अच्छी उपज लेने के लिये इसे गहरी काली भूमि में ही बोना चाहिये। इसकी जड़े जमीन में गहरी जाती है तथा विकसित होकर जल माँग की आवश्यकता को पूरा कर लेती हैं।

 

कुसुम की जातियों का चुनाव( Safflower varieties developed by Madhya Pradesh)

प्रदेश में बोने के लिये निम्नलिखित उन्नत जातियाँ अनुशंसित हैं। यह सभी जातियाँ लगभग 135 से 140 दिनों में पककर तैयार होती हैं। इन्ही जातियों में से परिस्थिति के अनुकूल चयन करना चाहिये।

१. जे.एस.एफ.1 

काँटेदार पौधे वाली जाति जिसके फूल सफेद रंग के होते हैं। इसके दाने सफेद रंग के बड़े आकार के होते हैं। दानों में 30 प्रतिशत तेल की मात्रा पायी जाती हैं। इसकी औसत उपज क्षमता 1500 से 1600 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हैं।

२. जे.एस.एफ.7 

बिना काँटेवाली जाति जिसके फूल खिले हुये पीले रंग के होते हैं और जब सूखने लगते हैं, तो फूलों का रंग नारंगी लाल हो जाता हैं। इसके दाने छोटे सफेद रंग के होते हैं। छिलका पतला होता हैं। दानों में 32 प्रतिशत तेल की मात्रा होती हैं। इसकी औसत उपज क्षमता 1300 से 1400 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हैं।

३. जे.एस.एफ.73 

बिना काँटेवाली जाति जिसके खिले हुए फूल पीले रंग के होते हैं और सूखने पर फूलों का रंग नारंगी लाल हो जाते हैं। इसके दाने जे.एस.एफ. 7 जाति से आकार में थोड़े बड़े सफेद रंग के होते हैं। दानों में 31 प्रतिशत तेल की मात्रा पायी जाती हैं। इसकी औसत उपज क्षमता 1400 से 1500 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हैं।

४. जे.एस.एफ.97 

बिना काँटेवाली किस्म हैं। फूल आते समय पीले रंग के होते हैं और सूखने पर नारंगी रंग के हो जाते हैं। यह किस्म लगभग 135-140 दिनों में पकती हैं। दानों में 30 प्रतिशत तेल की मात्रा पायी जाती हैं तथा इसकी औसत उपज क्षमता 1500 से 1600 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हैं।

५. जे.एस.एफ.99 

कम काँटेवाली किस्म जिसके ठूंठ बड़े एवं फूल नारंगी रंग के होते हैं। पौधे छोटे, बड़े केप्सूल तथा दानों का आकार बड़ा होता हैं। यह लगभग 115 से 120 दिन में पकती हैं। इसकी दानों में 29 प्रतिशत तेल की मात्रा पायी जाती हैं। इसकी औसत उपज क्षमता 1100 से 1200 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हैं।

 

बीजोपचार(Seed treatment)

फसल की बोनी करने के पूर्व बीजों को फफूंद से लगने वाली बीमारियों से बचाने के लिये किसी भी सर्वागीण फफूंदनाशी से बीजोपचार करते हुये बोना चाहिये। बीजो को 2 ग्राम थायरम तथा 1 ग्राम बाविस्टीन के मिश्रण द्वारा प्रति किलो बीज की दर से बोनी पूर्व बीजोपचार करें।

 

कुसुम बोने का समय(Sowing time of Safflower)

खरीफ मौसम में बोई गई मूंग या उड़द की फसल के बाद द्वितीय फसल के रूप में कुसुम की फसल बोने का उपयुक्त समय सितम्बर माह के अंतिम सप्ताह से अक्टूबर माह के प्रथम सप्ताह तक हैं। यदि खरीफ मौसम में सोयाबीन बोई है तो कुसुम फसल बोने का उपयुक्त समय अक्टूबर माह के अंत तक हैं। असिंचित (बारानी) स्थिति में सितम्बर माह से अक्टूबर माह के प्रथम सप्ताह तक कुसुम की फसल को सफलतापूर्वक बोया जा सकता हैं।

 

कुसुम बोने की विधि(Sowing method)

कुसुम का 20 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर के हिसाब से दुफन से बोना चाहिये। कतार से कतार की दूरी 45 से.मी. तथा कतारों में पौधों से पौधे की दूरी 20 से.मी. रखना चाहिये।

 

खाद एवं उर्वरकों की मात्रा एवं देने की विधि(Fertilizers for Safflower)

हर तीसरे वर्ष में एक बार 20 से 25 गाड़ी गोबर की पकी हुई खाद प्रति हेक्टेयर भूमि में मिलाना चाहिए। असिंचित अवस्था में नत्रजन 40 किलोग्राम, स्फुर 40 किलोग्राम एवं पोटाश 20 किलोग्राम नत्रजन, स्फुर एवं पोटाश प्रति हेक्टेयर गंधक की मात्रा देना चाहिये।

असिंचित अवस्था में उर्वरक की संपूर्ण मात्रा बोनी के समय दें। सिंचित अवस्था में नत्रजन की आधी मात्रा, स्फुर एवं पोटाश की पूरी मात्रा बोनी के समय दें तथा शेष नत्रजन की आधी मात्रा फसल में प्रथम सिंचाई के समय दें।

 

कुसुम की सिंचाई(Irrigation of Safflower)

यह सूखा सहनषील फसल हैं, फसल का बीज उगने के बाद इसे फसल कटने तक सिंचाई की आवश्यकता नही होती । लेकिन जहाँ सिंचाई उपलब्ध हो, वहाँ अधिकतम दो सिंचाई कर सकते हैं। प्रथम सिंचाई 50 से 55 दिनों पर (बढ़वार अवस्था) और दूसरी सिंचाई 80 से 85 दिनों पर (षखाएं आने पर) करना लाभप्रद होता हैं।

 

कुसुम की निंदाई एवं गुड़ाई(Weeding)

रबी में खरीफ मौसम की अपेक्षा खरपतवार कम आते हैं। कुसुम फसल में एक बार डोरा अवश्य चलायें तथा एक या दो बार आवश्यकतानुसार हाथ से निंदाई-गुड़ाई करें। ‘‘डोरा‘‘ चलाकर खेत को नींदा रहित रखें व मिट्टी की पपड़ी को तोड़ते रहें जिससे भूमि में नमी की क्षति कम होगी। निंदाई-गुड़ाई की प्रक्रिया को अंकुरण के 15-20 दिन बाद करना चाहिये एवं हाँथ से निंदाई करते समय पौधों का विरलन भी करना चाहिये। एक जगह पर केवल एक ही स्वस्थ पौधा रखना चाहियें।

पौध संरक्षण(Plant Protection)

(अ) कुसुम के कीट (pests of Safflower)

माहो-कुसुम में माहो कीट की समस्या हैं। इसके कारगर नियंत्रण के लिये निम्न दो विधियाँ हैं।

  1. नीम बीज के निमोली का 5 प्रतिशत घोल: जब फसल पर सबसे पहले माहो दिखाई दो उसके एक सप्ताह बाद छिड़काव करें। इसके 15 दिन बार रोगर (डाइमेथोएट) 750 मिली लीटर दवा का 500 लीटर पानी में/हे. के हिसाब से घोल बनाकर छिड़काव करें।
  2. कुसुम फसल में माहो सर्वप्रथम किनारे के पौधों पर दिखता है। यह पत्तियों तथा मुलायम तनों का रस चूसकर फसल को नुकसान पहुँचाता हैं। माहो द्वारा पौधों को नुकसान न हो इसके लिये मिथाईल डेमेटान 25 ई.सी. दवा का 0.04 प्रतिशत या डाईमेथोएट 30 ई. सी. दवा का 0.03 प्रतिशत या ट्राईजोफास 40 ई.सी. दवा का 0.04 प्रतिशत घोल बनाकर छिड़काव करें। माहो कीट के प्रकोप एवं तीव्रता को देखते हुये आवश्यकता पड़ने पर 15 दिन बाद दुबारा छिड़काव करें।

कुसुम की मक्खी तथा फल छेदक इल्ली

इसकी  फसल के पौधों में जब फूल आना शुरू होता हैं तब इसका प्रकोप देखा जाता हैं। इसकी इल्लियाँ कलियों के अंदर रहकर फूल के प्रमुख भागो को नष्ट कर देती हैं। इसकी रोकथाम के लिये क्लोरपायरीफाॅस 20 ई.सी. दवा का 0.05 प्रतिशत का घोल बनाकर छिड़काव करें।

(ब)कुसुम के रोग (Diseases of safflower)

कुसुम फसल में रोग संबंधी कोई समस्या नही हैं। बीमारियाँ हमेषा वर्षा के बाद, अधिक आर्द्रता की वजह से खेत में फैली गंदगी से, खेत के समीप अधिक समय से जमे हुये गंदे पानी के फसल में बहकर आने से, एक ही स्थान पर बार बार कुसुम की फसल लेने से होती हैं। अतः उचित फसल चक्र अपनाना, बीज उपचारित कर बोना तथा प्रतिवर्ष खेत बदलना आवश्यक हैं।

१.जड़ सड़न रोग

फसल की प्रारंभिक अवस्था में जब पौधे अत्यंत छोटे होते हैं तब जड़ सड़न बीमारी देखने को मिलती हैं। पौधों की जड़े सड़ जाने के कारण पौधे सूख जाते हैं तथा जड़ों पर सफेद रंग का फफूंद जम जाता है। इस रोग की रोकथाम के लिये बीजोपचार आवश्यक हैं। बीजोपचार करके ही बोनी करनी चाहिये।

२.आल्टरनेरिया पत्तों के धब्बे

बोनी के पूर्व किसी भी सर्वागीण फफूंदनाशी से बीजों को उपचारित करें। इस रोग के नियंत्रण हक लिये खड़ी फसल पर डायथेन एम 45 दवा का 0.25 प्रतिशत का घोल बनाकर छिड़काव करें।

३.भभूतिया रोग

इस बीमारी के प्रकोप से पत्तों एवं तनों पर सफेद रंग का चूर्ण जैसा पदार्थ जमा हो जाता हैं। खेतों में इस प्रकार के रोग ग्रसित पौधे दिखने पर घुलनशील गंधक चूर्ण की 20 से 25 किलोग्राम मात्रा का प्रति हेक्टेयर की दर से खडी फसल में भुरकाव करें।

४.गेरूआ

इस बीमारी का प्रकोप होने पर डायथेन एम 45 दवा की तीन ग्राम मात्रा को प्रति लीटर पानी में मिलाकर (प्रति हेक्टेयर में लगने वाली आवश्यक मात्रा का पानी में घोल बनाकर) खड़ी फसल पर छिड़काव करके रोकथाम कर सकते हैं।

५.पक्षियों से सुरक्षा

पक्षियों में विशेषकर तोते इस फसल को अधिक नुकसान पहुँचात हैं। इसलिए दाने भरने से लेकर पकने तक लगभग तीन सप्ताह तक फसल की रखवाली तोतों से करना आवश्यक हैं। तोते कुसुम के कैप्सूल को काटकर नुकसान पहुँचाते हैं एवं दानों को खाते हैं।

६.फसल कटाई

फसल पूरी तरह सूखने पर कांटेदार कुसुम की कटाई हाँथ में दस्ताने पहनकर या उसे कपड़े से लपेटकर या दो षाखा वाली लकड़ी में पौधे को फंसाकर दराते से करते हैं। पौधों को डंडे से पीटकर, चैड़े मुहँवाले पावर थ्रेषर से या खलिहान में पौधों के ऊपर ट्रेक्टर चलाकर गहाई की जा सकती हैं। बिना काँटेवाली जातियों की कटाई में कई परेशानी अथवा असुविधा नही होती है न ही दस्ताने पहनने की आवश्यकता होती हैं।

 

उपज (Safflower yield)

असिंचित अवस्था: 1100 से 1200 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर

सिंचित अवस्था: 1500 से 1600 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर

 

फसल चक्र(Crop rotation)

कुसुम को सूखा वाले क्षेत्र या असिंचित अवस्था में खरीफ मौसम में किन्ही कारणोवंष फसलों के खराब होने के बाद अथवा पड़ती खेतों में उपलब्ध संचित नमी के आधार पर उगाया जा सकता हैं। खरीफ मौसम में ली गई दलहनी फसलों के बाद द्वितीय फसल के रूप् में कुसुम को उगाया जा सकता हैं। खरीफ में मक्का या ज्वार फसल ली हो तो रबी मौसम में कुसुम की फसल को उगाया जा सकता हैं।

 

ध्यान देने योग्य बाते

  1. कुसुम की फसल को अन्य रबी फसलों की अपेक्षा जल्दी बोया जाता हैं। अतः जमीन की तैयारी बहुत जल्दी करना आवश्यक होता हैं।
  2. बुआई के समय जमीन में अंकुरण के लिये पर्याप्त नमी होना आवश्यकता हैं।
  3. कुसुम को गहरी काली जमीन में ही बोयें।
  4. संतुलित उर्वरकों का प्रयोग करें।

 

Source-

  • Jawaharlal Nehru Krishi VishwaVidyalaya,Jabalpur(M.P.)
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