कुसुम करड़ी में रोग एवं कीट प्रबंधन ( Safflower disease and pest management )

कुसुम प्रमुख रबी तिलहनी फसल है। देश में इसे संतरा रंग की डाई (काथीमिन) तथा बहुगुणी तेल हेतु उत्पादित किया जाता है। यह अत्यंत कम वर्षा एवं नमी की स्थिति में भी उत्पादन देती है। कुसुम फसल से प्राप्त होने वाला तेल पानी असंतृप्त वसीय अम्लों (लिनोलिक अम्ल 78 प्रतिशत) से भरपूर होता है। रक्त फोलस्ट्राल घटाने में इसकी प्रमुख भूमिका होती हैं।

(अ)कुसुम की प्रमुख बीमारियाँ ( Diseases of Safflower )

कुसुम में बीमारियों की विशेष कोई समस्या नहीं हैं। कुसुम में बीमारियाँ वर्षा के बाद अधिक आद्रता की वजह से खेतो में फैली गंदगी से खेतों के आसपास काफी समय से संचित रूका पानी फसल में बहकर आने से या एक ही स्थान पर बार बार कुसुम की फसल लेने से होती है। इस सब बातों को ध्यान रखते हुये खेत में पर्याप्त सफाई रखें और ज्यादा सिंचाई न करें। कुसुम में पाई जाने वाली बीमारियाँ इस प्रकार है।

 

1.पर्ण दाग (आल्टरनेरिया)

यह बीमारी बहुत सामान्य है और सभी जगह देखी जाती है। इसमें गहरे रंग की गोल गोल धब्बेनुमा धारियाँ दिखती हैं। बीमारी नीचे के पत्तों से षुरू होकर उपर बढ़ती है और तीव्र अवस्था में होने से आसपास के छोटे पत्तों पर फैल जाती है व तनों पर भी धब्बे पड़ते है। इस बीमारी से पत्ते पीले पड़कर टूटने लगते हैं और पैदावार बहुत कम आती है बीमारी बहुत ज्यादा होने पर बीज छोटे हो जाते हैं और उनका रंग बदल जाता है। हमेशा स्वस्थ फसल में से बीज बोनी के लिये लें। बीज को थायरम से उपचारित कर बोयें।

2.उकटा (विल्ट)

इस बीमारी में पौधे के नीचे के पत्ते पीले पड़ने लगते हैं धीरे धीरे बीमारी उपर के पत्तों पर बढ़ने लगती है और मुख्य तने ग्रसित होकर आजू बाजू की शाखाये मुरझाकर सूखने लगती है। बाद में पूरा पौधा सूख जाता है।यह बीमारी अत्याधिक बारिश, खेत में ज्यादा पान, जल निकास अच्छा नही होने व एक खेत में बार बार कुसुम बोने से फैलती हैं।

 

3.जड़ सड़न रोग

यह बीमारी बोनी के बाद उगने वाले छोटे पौधो में सामान्यतः देखी जाती है। कभी कभी बड़े पौधों में भी यह बीमारी होती है। इस बीमारी में जड़े सड़ने लगती हैं और पौधे सूखने लगते हैं। खेत में अत्याधिक नमी व बाहरी तापमान अधिक होने पर यह बीमारी बहुत फैलती है। इस बीमारी की फफूँद जमीन से रोगी पौधो के डंठलों से सवस्थ पौधों मे प्रवेश कर बीमारी फैलाती है। इसलिये रोग से ग्रसित पौधों को उखाड़कर पूरी तरह नष्ट कर देना चाहिये ।

 

4.गेरूआ (पक्सीनिया कार्थेमाइ)

इस बीमारी में पत्तों पर चाकलेटी रंग के उभरे हुए धब्बे दिखते हैं जिन्हे हाथ लगाने पर हाथ पर चाकलेटी रंग का पाउडर चिपकता है। पत्ते बाद में पीले पड़कर गिर जाते हैं। इस बीमारी के फफूँद के अंश चाकलेटी धब्बों के रूप में बीज पर दिखाई देती है यह बीज बाद में अगली फसल पर बीमारी पहुँचाते हैं। बोनी के लिये स्वस्थ फसल में से बीज लेना चाहिए व उसे थायरम से 3 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करके ही बोना चाहिए।

5.चूर्णिल आसिता, भभूतिया रोग (इरीसाइफी सिकोरेसिएरम)

इन बीमारी से पत्तों के निचले व उपरी भाग पर सफेद पाउडर (भभूत) डालने जैसे धब्बे दिखते हैं। यह धब्बे बढ़कर बाद में पूरे पत्ते पर फैल जाते हैं। पत्ते गिरने लगते हैं अत्याधिक नमी व कम तापमान में यह बीमारी अधिक फैलती हैं।

बीमारी नियंत्रण हेतु सावधानियाँ ( Precautions for disease control )

  1. खेत में जल निकास का उत्तम प्रबंध करें।
  2. एक ही खेत में बार बार कुसुम नही लगायें। उचित फसल चक्र अपनायें।
  3. खेत में उचित सफाई रखें व खेत में चारो ओर की मेढ़ें हमेशा खरपतवार व गंदगी रहित रखें।
  4. बीमारी लगे फसल के पौधे उखाड़े व उन्हे जलाकर नष्ट करें।
  5. बीमारी लगे फसल का बीज बोनी के लिये नही लें।
  6. हमेशा स्वस्थ बीज बोनी के लिये लें व उसे 3 ग्राम थायरम प्रति 1 किलो बीज के हिसाब से उपचारित करें।
  7. कुसुम की बोनी जल्दी (सितम्बर के प्रथम या द्वितीय सप्ताह में) नहीं करें।
  8. फसल को अधिक सिंचाई नहीं दें।
  9. खेत के निचले हिस्से में जहाँ खेत हमेशा गीला बना रहता हो वहाँ कुसुम नही बोयें।

कुसुम की प्रमुख बीमारियाँ व उनकी रोकथाम के उपाय

क्र. बीमारी का नाम बीमारी के लक्षण नियंत्रण के उपाय
1 पत्तो पर धब्बे (अल्टरनेरिया) पत्तो पर हल्के चाकलेटी रंग के धब्बे पड़ते हैं। पत्ते पीले पड़कर टूटने लगते हैं। 1. 3 ग्राम थायरम प्रति किलो बीज में मिलाकर बीजोपचार करें।

2. डायथेन एम 45, 250 ग्राम प्रति 100 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।

2 उकटा (विल्ट) पौधे के नीचे के पत्ते पीले पड़कर मुख्य तने का षिरा व आजूबाजू की शाखाये मुरझाकर सूखने लगती है। 1. 3 ग्राम थायरम प्रति किलो बीज में मिलाकर बीजोपचार करें।

2. उचित फसल चक्र अपनायें

3. खेत में जल निकास का उत्तू प्रबंध करें

3 जड़ सड़न रोग जड़ सड़ने लगती हैं और पौधा सुखने लगता है। 1. 3 ग्राम थायरम प्रति किलो बीज में मिलाकर बीजोपचार करें।

2. उचित फसल चक्र अपनायें

4 गेरूआ पत्तों पर चाकलेटी रंग के धब्बे पड़ते हैं। जिन्हे हाथ लगाने पर चाकलेटी रंग का पावडर हाथ में चिपकता है। 1. 3 ग्राम थायरम प्रति किलो बीज में मिलाकर बीजोपचार करें।

2. डायथेन एम 45 दवा 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।

5 भभूतिया रोग पत्तों के निचले व उपरी भाग पर सफेद पावडर (भभूत) डालने जैसे धब्बे दिखते हैं। धब्बे परे पत्ते पर फैलकर पत्ते गिरने लगते हैं। 1. कैराथेन दवा 1 मि.ली. प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।

 

(ब) कुसुम के प्रमुख कीट ( Pests of Safflower )

कुसुम फसल में सर्वाधिक कीट समस्या माहो कीट के प्रकोप की होती है जो पूरे प्रदेष एवं देष में समान रूप से देखी जाती है। माहो (एफिड) मटमैले काले रंग का पखहीन तथा पंखवाला कीट होता हैं। पंख पारदर्शी होते हैं। अत्याधिक सूखे की स्थिति में यह बहुत कम संख्या बढ़ा पाता है। जिस वर्ष खरीफ में वर्षा अच्छी होती हैं तो माहो का प्रकोप अधिक होता है। इसकी संख्या वृद्धि तब अधिक होती है जब दिसम्बर जनवरी में मेघाच्छादन के साथ गर्मी सहित नमी का मौसम हो। हवा के बहाव के साथ वयस्क झुंडो में उड़कर फसल पर बैठ जाते हैं तथा रस चूस कर हानि करते हैं। संख्या वृद्धि हेतु नर एवं मादा का मिलन जरूरी नही है, पाथ्रैनोजिनेसिस क्रिया द्वारा भी यह रातोंरात तेजी से बढ़ जाता हैं।

फसल में फूल आने के पूर्व की अवस्था में शिशु और वयस्क माहो तने के अग्र नर्म भागों, पत्ती के डंठलों, पत्तियों एवंत ने से रस चूसते हैं ये अपनी शरीर से मधुसर्करा का उत्सर्जन करते हैं जो यहाँ वहाँ ओस की बूंद जैसी दिखाई देती है इसके पश्चात इस मधुशर्करा पर काली फफूँद विकसित हो जाती है जिसके कारण पौधों की प्रकाष संश्लेषण क्रिया पर अत्यंत प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, फलस्वरूप पौधे की बढ़वार रूक जाती है अंततः पौधा सूख कर मर जाता है। देर से बोयी गयी फसल में इसका अत्याधिक प्रकोप होता हैं क्योंकि फसल (प्रकोप के समय) छोटी रहने से पत्तों तथा तने में एकदम नर्म एवं रसीलापन रहता है फलस्वरूप बहुत अधिक नुकसान होता है।

प्रबंधन

इसके प्रबंधन हेतु खेतों में अच्छी सड़ी पकी गोबर की खाद 5 से 6 टन प्रति हेक्टेयर डालने पर अपेक्षाकृत कम प्रकोप देखा जाता है, नत्रजनीय उर्वरकों का अधिक उपयोग माहो को पनपने एवं बढ़ने में सहायक होता है अतः उर्वरकों का सिफारिश अनुसार संतुलित मात्रा में उपयोग अत्यंत आवष्यक हैं।

कीट के समयानुकूल प्रबंधन हेतु अतयाधिक सजगता की आवश्यकता होती ह, कीट बढ़ने की अनुकूल वातावरण की परिस्थिति में बारीकी से निरीक्षण जरूरी है। पहले हमेशा किनारे के पौधों पर प्रकोप होता है अतः फसल के चारों ओर 4-5 कतारों में सबसे पहले छिड़काव करना चाहिए, साथ ही हवा के बहाव की दिशा वाले हिस्से में छिड़काव करना चाहिए।

इसके  प्रकोप के पूर्वानुमान की स्थिति में नीम तेल 4 मि.ली. प्रति लीटर पानी अथवा क्रूड नीम गिरीसत (एन.एस.के.ई.) 5 प्रतिशत का उपयोग साथ में चिपकने वाली दवा सेण्डोविट या टीपाल या चिपको आदि को एक मिली लीटर घोल के मान से मिलाकर छिड़काव करना लाभदायक होता हैं।

कीट प्रकोप की स्थिति में डाइमिथोएट 30 ई.सी. 0.05 प्रतिशत या थायोमिथोक्सेम 25 डब्लू जी का 0.005 प्रतिशत या एसीटामीप्रिड 15.1 का छिड़काव किया जा सकता हैं अथवा नीमगिरी सत 5 प्रतिशत का छिड़काव किया जा सकता है। दवा छिड़काव करने के समय आर्थिक हानि का ध्यान रखना चाहिए। यदि 25 माहो (शिशु एवं वयस्क) प्रति 5 से. मी. अग्रशीर्ष है आवश्यकता पड़ने पर दवाओं का छिड़काव पुनः 15 दिन बाद किया जा सकता हैं।

दवाओं का छिड़काव खेत में फसल के चारों ओर घमते हुए अंदर ही तरफ करना चाहिए । भुरकने वाली दवाओं एण्डोसल्फान 4 प्रतिशत या मिथाइल पैराथियान 2.5 प्रतिशत या क्यूनालफास 1.5 प्रतिशत चूर्ण का 40 से 60 दिन की फसल अवस्था पर लगभग 20 किलो प्रति हेक्टेयर के मान से उपयोग कर सकते हैं फसल पर कीटनाशकों के छिड़ाकव हेतु 500 लीटर पानी आवष्यक होता हैं।

अन्य कीटों में फल छेदक इल्ली फूल खिलने के समय डोडो में छेद कर भीतरी भाग खा जाती है आवश्यकता पड़ने पर एण्डोसल्फान 35 ई.सी. का 750-1000 मि.ली. प्रति हेक्टेयर के मान से छिड़काव किया जा सकता है।

कीटनाशक दवाओं का चुनाव करते समय मित्र कीटों जैसे इन्द्रगोप भृंग (लेडी बड़ बीटल) की संख्या का ध्यान रखना चाहिए ताकि इनकी हानि कम से कम हो।

खेतो के चारों किनारों पर सफेद ग्रीस लगी पीली पट्टियाँ लगाकर प्रकोप का पूर्वानुमान लगाना सरल हो जाता है।

 

Source-

  • Jawaharlal Nehru Krishi VishwaVidhyalaya, Jabalpur(M.P.)
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