कुंदरू की वैज्ञानिक खेती

कुंदरू एक लतावाली बहुवर्षीय सब्जी फसल है जो कि किसी सहारे के साथ तेजी से बढ़ती है यह अधिकतर गृह वाटिका में देश के सभी हिस्सों में उगायी जाती है । कम ठंड पड़ने वाले स्थानों पर यह लगभग सालभर फल देती है परन्तु जिन स्थानों पर ज्यादा ठंडक पड़ती है वहां पर यह फसल 7-8 माह फल देती है यद्यपि यह एक अल्प उपयोगी सब्जी फसल है परन्तु छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश एवं बिहार के कुछ हिस्सों के किसान इसे व्यवसायिक स्तर पर भी उगाते हैं । भविष्य के बदलते हुए जलवायु परिवेश में कुंदरू एक महत्वपूर्ण सब्जी फसल के रूप में देखी जा रही है ।

 

जलवायु

कुंदरू की फसल के लिए गर्म तथा आर्द्र जलवायु सर्वाधिक उपयुक्त होती है । उत्तर भारत में ठंड के कारण बढ़वार बाधित हो जाती है एवं पौधा सुषुप्ता अवस्था में चला जाता है ।

 

भूमि एवं भूमि की तैयारी

कुंदरू को लगभग सभी प्रकार की भूमि में उगाया जा सकता है परन्तु कार्बनिक पदार्थ युक्त बलुई दोमट भूमि सर्वाधिक उपयुक्त होती है । इसमें लवणीय मिट्टी को सहन करने की भी क्षमता होती है । इसकी खेत की तैयारी 3-4 जुताई करके मिट्टी भुरभुरी बना लेते हैं ।

 

कुंदरू की किस्में

1.इंदिरा कुंदरू-5:

कुंदरू की यह प्रजाति इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर द्वारा विकसित की गई है । इसके फल हल्के हरे, अण्डाकार (फल की लंबाई 4.30 से.मी. एवं व्यास 2.60 से.मी.) होता है । यह एक अधिक उपज देने वाली प्रजाति है । इस प्रजाति से 21 कि.ग्रा. फल प्रति पौधा प्राप्त किया जा सकता है । इस प्रजाति की उत्पादन क्षमता 400-425 कु./है. है ।

 

2.इंदिरा कुंदरू-35:

कुंदरू की यह प्रजाति भी इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर द्वारा विकसित की गई है इसके फल लम्बे हल्के हरे तथा फल 6.0 से.मी. लम्बे एवं उनका व्यास 2.43 से.मी. होता है । यह एक अधिक उपज देने वाली प्रजाति है । इस प्रजाति से 22 कि.ग्रा. फल प्रति पौधा प्राप्त किया जा सकता है । इस प्रजाति की उत्पादन क्षमता 410-450 कु./है. है ।

 

3.सुलभा (सी.जी.-23):

कुंदरू की यह प्रजाति केरल कृषि विश्वविद्यालय, वेल्लानीकारा द्वारा विकसित की गई है । इसके फल लम्बे (9.25 से.मी.), गहरे हरे रंग के होते हैं यह प्रजाति रोपण के 37-40 दिन में पुष्पन में आती है एवं प्रथम तुड़ाई 45-50 दिन पर होती है । यह प्रजाति वर्षभर में लगभग 1050 फल प्रति पौधा देती है एवं इसकी उत्पादन क्षमता 400-425 कु./है. है ।

 

4.काशी भरपूर (वी.आर.एस.आई.जी.-9):

कुंदरू की यह प्रजाति भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान, वाराणसी द्वारा विकसित की गई है । इसके फल आकर्षक हल्के हरे, अण्डाकार एवं हल्की सफेद धारी युक्त होते हैं । यह प्रजाति रोपण के 45-50 दिन में फल देने लगती है । इस प्रजाति से 20-25 कि.ग्रा. फल प्रति पौधा प्राप्त किया जा सकता है । इस प्रजाति की उत्पादन क्षमता 300-400 कु./है. है ।

 

खाद एवं उर्वरक

कुंदरू की अच्छी फसल लेने हेतु 60-80 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 40-60 कि.ग्रा. फास्फोरस तथा 40 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हैक्टेयर डालते हैं । फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की आधी मात्रा फसल रोपण के समय तथा बाकी की नत्रजन की मात्रा को चार बार में जून या जुलाई से प्रति माह देना चाहिए । इसके साथ ही प्रति गड्ढे में 10 कि.ग्रा. गोबर की खाद भी फसल रोपण के पहले देनी चाहिए । सड़ी हुई गोबर की खाद के साथ ही प्रति गड्ढा आधा किलो नीम खली मिलाने से कीड़े मकोड़े तथा बीमारियों का प्रकोप कम होता है ।

 

फसल प्रबंधन एवं रोपण

कुंदरू को मुख्यतः कटिंग से ही लगाया जाता है यह देखा गया है कि पुराने प्ररोह की मोटी तना कटिंग में अंकुरण तीव्र गति से होता है । फरवरी के अंतिम सप्ताह से 15 मार्च के दौरान 15-20 से.मी. लम्बी तथा 1.5 से 2.0 से.मी. मोटी कटिंग को पोली बैग या सीधे जमीन में लगाते हैं । इन्हे अच्छी तरह तैयार किए गए गड्ढे जो कि 60 से.मी. व्यास के होते हैं पौध से पौध की दूरी 2.0 मी. तथा लाइन से लाइन की दूरी 2.00 मीटर रखते हैं ।

सिंचाई कुंदरू की फसल को गर्मी में 4-5 दिन के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए । फसल में पुष्पन एवं फलन के समय उचित नमी बनाये रखे । उचित जल निकास न होने तथा 18-24 घंटे तक पानी भरने की दशा में फसल पीली होकर सूख जाती है ।

 

अंतः सस्य क्रियायें

खेत में खरपतवार प्रबंधन के लिए एक दो निराई की आवश्यकता फसल की प्रारंभिक अवस्था में होती है । निराई खुर्पी की सहायता से करते हैं तथा दो पंक्तियों के बीच में हल्की गुड़ाई भी कर देते हैं जिससे पौधों की जड़ों में वायु संचार पूर्ण रूप् से हो सके ।

 

ट्रेनिग एवं प्रूनिग

कुंदरू की फसल काफी वानस्पतिक वृद्धि करती है अतः इसे सहारे की आवश्यकता होती है । साधारणतया पंडाल पद्धति में 1.5 से 1.75 मी. के सीमेंट के खम्बे, बांस के टुकड़े आदि के सहारे फसल को चढ़ाया जाता है । उत्तर भारत में ठंडक के कारण नवम्बर में फसल को जड़ से 30 से.मी. छोड़कर काट दिया जाता है । गृहवाटिका में इसे घरों की छतों पर, चाहरदीवारी पर भी चढ़ाकर उगाते हैं ।

 

तुड़ाई

फलों की पहली तुड़ाई रोपण के 45-50 दिन पर होती है बाद की तुड़ाई 4-5 दिन के अंतर पर करते रहते हैं ।

 

उपज

हरे ताजे फलों की औसत उपज 300-400 कु./है. प्राप्त होती है ।

 

प्रमुख कीट एवं नियंत्रण

1.फल मक्खी:

इस कीट की सूण्डी हानिकारक होती है । प्रौढ़ मक्खी गहरे भूरे रंग की होती है । इसके सिर पर काले तथा सफेद धब्बे पाये जाते हैं । प्रौढ़ मादा छोटे, मुलायम फलों के छिलके के अन्दर अण्डा देना पसन्द करती है, और अण्डे से ग्रब्स (सूड़ी) निकलकर फलों के अन्दर का भाग नष्ट कर देते हैं । कीट फल के जिन भाग पर अण्डा देती है वह भाग वहां से टेड़ा होकर सड़ जाता है । ग्रसित फल सड़ जाता है और नीचे गिर जाता है ।

 

नियंत्रण:

गर्मी की गहरी जुताई या पौधे के आस पास खुदाई करें ताकि मिट्टी की निचली परत खुल जाए जिससे फलमक्खी का प्यूपा धूप द्वारा नष्ट हो जाए तथा शिकारी पक्षियों को खाने के लिए खोल देता है । ग्रसित फलों को इकट्ठा करके नष्ट कर देना चाहिए । नर फल मक्खी को नष्ट करने लिए प्लास्टिक की बोतलों को इथेनाल, कीटनाशक (डाईक्लोरोवास या कार्बारिल या मैलाथियान), क्यूल्यूर को 6:1:2 के अनुपात के घोल में लकड़ी के टुकड़े को डुबाकर, 25 से 30 फंदा खेत में स्थापित कर देना चाहिए ।

कार्बारिल 50 डब्ल्यूपी., 2 ग्राम/लीटर या मैलाथियान 50 ईसी, 2 मिली/लीटर पानी को लेकर 10 प्रतिशत शीरा अथवा गुड़ में मिलाकर जहरीले चारे को 250 जगहों पर 1 हैक्टेयर खेत में उपयोग करना चाहिए । प्रतिकर्षी 4 प्रतिशत नीम की खली का प्रयोग करें जिससे जहरीले चारे की ट्रैपिंग की क्षमता बढ़ जाए । आवश्यकतानुसार कीटनाशी जैसे क्लोरेंट्रानीप्रोल 18.5 एससी., 0.25 मिली/लीटर या डाईक्लारोवास 76 ईसी., 1.25 मिली/लीटर पानी की दर से भी छिड़काव कर सकते हैं ।

 

2.मृदु चूर्णिल आसिता:

यह बीमारी बदली वाले मौसम में होती है। इसमें पुरानी पत्ती की निचली सतह पर सफेद गोल धब्बे बन जाते हैं । जो बाद में आकार एवं संख्या में बढ़ जाते हैं तथा पत्ती की दोनों सतह पर आ जाते हैं । बीमारी के अधिक प्रकोप के समय पत्तियाँ भूरे होकर सुकड़ जाती है ।

 

नियंत्रण:

इसके प्रबंधन हेतु बाविस्टीन 0.1 प्रतिशत का घोल का छिड़काव प्रति सप्ताह तीन सप्ताह तक बीमारी की प्रारंभिक अवस्था में ही करें ।

 

3.कुंदरू की गाल मक्खी:

यह मक्खी पौधे के नरम तने में अण्डे देती है एवं तने का हिस्सा फल की तरह फूल जाता है ।

 

नियंत्रण:

इसके प्रबंधन के लिए ऐसे प्रभावित तने को तोड़कर निकाल देना चाहिए ।

 

 

स्रोत-

  • भा.कृ.अनु.प.-भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान पो.आ.-जक्खिनी (शाहंशाहपुर), वाराणसी 221 305 ,उत्तर प्रदेश

 

One thought on “कुंदरू की वैज्ञानिक खेती

  1. It is very good information,it will very helpful to marginal growers.Thanks

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