परिचय
काली हल्दी या नरकचूर एवं औषधीय महत्व का पौधा है । जो कि मुख्य रूप से बंगाल में बृहद स्तर पर उगाया जाता है । इसका उपयोग रोगनाशक व सौन्दर्य प्रसाधन दोनों रूपों में किया जाता है ।
वानस्पतिक वर्णन
काली हल्दी वानस्पतिक भाषा में कुरकुमा केसिया के नाम से जानी जाती है । इसे आंग्ल भाषा में ब्लैक जेडोरी भी कहते हैं । यह जिन्जीबिरेसी कुल का सदस्य है, इसका पौधा तना रहित शाकीय व 30-60 से.मी. ऊंचा होता है पत्तियाँ चैड़ी भालाकार ऊपरी सतह परनीले बैंगनी रंग की मध्य शिरा युक्त होती है । पुष्प गुलाबी किनारे की ओर रंग के सहपत्र लिये होते हैं । राइजोम बेलनाकार गहरे रंग के सूखने पर कठोर क्रिस्टल बनाते हैं । राइजोम का रंग कालिमा युक्त होता है ।
औषधीय महत्व व उपयोग
शुष्क आकंद के वाष्प् आसवन से लगभग 1.5 प्रतिशत उड़नशील तेल प्राप्त होता है । जिसमें मुख्य घटक डी.केम्पर, केम्फीन, वोरनीलीन एवं सेक्वींटर पीन होते हैं|
जलवायु
काली हल्दी की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु उष्ण होती है एवं तापमान 15 से 40 डि.से.ग्रे. होना चाहिए ।
भूमि की तैयारी
कली हल्दी दोमट बालुई मटियार प्रकार की भूमि में अच्छे से उगाई जा सकती है । वर्षा के पूर्व जून के प्रथम सप्ताह में 2-4 बार जुताई करके मिट्टी भुरभुरी बना लें तथा जल निकासी की अच्छी व्यवस्था कर लें, खेत में 20 टन प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर की खाद मिला दें
बोने का समय व विधि
बोने के लिए पुराने राइजोम को जिन्हे ग्रीष्म काल में नमींयुक्त स्थान पर रेत में दबा कर संग्रह किया गया है उपयोग में लाते हैं इन्हें नये अंकुरण आने पर छोटे-छोटे टुकड़ों में काट लिया जाता है, जिन्हें तैयार की गई भूमि में 30 से.मी. कतार से कतार 20 से.मी. पौधे से पौधे के अंतराल पर 5-10 से.मी. गहराई पर रोपा जाता है । 15 से 20 क्विंटल राइजोम/हेक्टयर रोपने में लगते हैं । 2-3 बार निंदाई करने से फसल की वृद्धि अच्छी होती है तथा बरसात के बाद माह में 2 बार सिंचाई करना उपयुक्त होता है ।
रोग व कीट
काली हल्दी में रोग व कींट का प्रकोप प्रायः नहीं देखा गया है पर आवश्यकता होने पर उपयुक्त रोग व कींट नाशकों का उपयोग किया जा सकता है ।
खुदाई संसाधन व उत्पादन
काली हल्दी की फसल अवधि लगभग 8-साढ़े 8 माह में तैयार होती है प्रकंदो को सावधानी पूर्वक बिना क्षति पहुंचाये खोदकर निकालें व साफ करके छायादार सूखे स्थान पर सुखायें । अच्छी किस्म के राइजोम को 2-4 से.मी. के टुकड़ों में काट कर सुखा कर रखें, जो सूख कर कठोर हो जाते हैं । ताजे आकंद का उत्पादन लगभग 250 क्विंटल तथा शुष्क आकंद का उत्पादन लगभग 50 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होता है । जिसका विक्रय मूल्य लगभग 25 रू. प्रति किलोग्राम के आधार पर शुद्ध लाभ 40 हजार रू. प्रति हेक्टेयर तक आंका गया है ।
स्रोत-
- जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय ,जबलपुर,मध्यप्रदेश