हमारे देश के कुछ क्षेत्रों जैसे पश्चिम बंगाल, बिहार, ओडिशा इत्यादि वर्षाकाल में अधिकांश भू-भाग जलमग्न रहता है। ऐसी परिस्थिति में वहां रहने वाले स्थानीय लोगों को खाद्य एवं पोषण के लिए जलीय फसलों पर निर्भर रहना पड़ता है। भारत में लगभग 80-100 प्रकार की जलीय सब्जियाँ पायी जाती हैं जिनमें सिंघाड़ा, कलमी साग, कमल, वाटर क्रेस, मखाना इत्यादि प्रमुख है। यद्यपि इनका प्रयोग पोषण एवं औषधीय गुणों के लिए प्राचीन काल से ही होता आया है किन्तु वर्तमान समय में इनकी उपयोगिता को देखते हुए इनका महत्व और भी बढ़ गया है, किन्तु इनसे संबधित जानकारी एवं आँकड़ें सीमित है।
पोषण सुरक्षा के लिए नवीन फसलों को सब्जियों के रूप में जोड़ने की दिशा में बढ़ाये कदमों ने दुनियाभर के वैज्ञानिकों एवं उपभोक्ताओं का ध्यान आकर्षित किया है। जलीय सब्जियों की महत्ता को देखते हुए भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान, वाराणसी (उ.प्र.) ने इन सब्जी फसलों पर शोध कार्य प्रारम्भ किया है। कुछ जलीय सब्जियों जैसे कमली साग, सिघाड़ा एवं कमल का विवरण नीचे दिया गया है।
कलमी साग
इसका वानस्पतिक नाम आइपोमिया एक्वेटिका है लेकिन स्थानीय रूप से इसे वाटर स्पीनाच, स्वाम्प कैबेज, वाटर कनवालवुलस एवं करेमू साग के नाम से जाना जाता है। यह कनवालवुलेसी कुल की जलीय सब्जी है। इसके पौधे लतादार होते हैं एवं पानी की सतह पर तैरते रहते हैं। यह दक्षिण पूर्व एशिया में प्रमुख रूप से पाया जाता है। भारत वर्ष में यह मुख्यतः उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओड़िशा एवं कर्नाटक में प्रचुरता से पाया जाता है। हमारे देश के अतिरिक्त कलमी साग को थाईलैण्ड एवं मलेशिया में भी व्यावसायिक स्तर पर सब्जी के रूप में उगाया जाता है।
सामान्यतः यह अर्ध-जलीय प्रकृति का होता है जो द्वि वर्षीय या बहुवर्षीय रूप में उगाया जाता है। इसके अलावा कलमी साग की स्थानीय प्रजाति भी उपलब्ध है जिसे सामान्य जमीन पर भी उगाया जा सकता है जो आजकल काफी प्रचलित हो रही है। कलमी साग के मुलायम पत्ते एवं तने सब्जी एवं सलाद के रूप में प्रयोग किये जाते हैं। कलमी साग विटामिन एवं खनिज तत्वों का उत्तम स्रोत हंै जिसमें प्रमुख रूप से लौह तत्व (3.9 मि.ग्रा.), कैरोटिन (1,980 माइक्रोग्राम), विटामिन सी (37 मि.ग्रा) एवं राइबोफ्लेवीन (0.13 मि.ग्रा.) प्रति 100 ग्राम खाद्य योग्य वजन में पाया जाता है।
कलमी साग के सभी भागों में औषधीय गुण पाया जाता है जो प्रमुख रूप से उच्च रक्त चाप को ठीक करने मंे लाभदायक होता है। इसके अतिरिक्त यह एक वमनकारी के रूप में अफीम एवं आरसेनिक की विषाक्तता को कम करने में लाभप्रद होता है। बहुधा घबराने की बीमारी, सामान्य अशक्तता, बवासीर, कीटों द्वारा संक्रमण, ल्यूकोड़रमा, कुष्ठ रोग, पीलिया, आँख की बीमारी एवं कब्जियत के निदान में लाभदायक है।
जलवायु एवं भूमि का चयन
कलमी साग उष्ण एवं आर्द्र जलवायु का पौधा है। इसके पौधों की अच्छी बढ़वार के लिए अधिक तापक्रम एवं अल्प प्रकाश अवधि की आवश्यकता होती है। तापक्रम 25 डिग्री सेन्टीग्रेड से कम होने पर इसके पौधों की बढ़वार रूक जाती है। भारतवर्ष में प्राकृतिक रूप से जलमग्न मैदानों एवं तालाबों में कलमी साग प्रचुर मात्रा में स्वयं उगता है अथवा स्थानीय किस्मों को मकान के पीछे गृहवाटिका में उगाया जा सकता है और वर्षा ऋतु में स्वास्थ्यप्रद हरी सब्जी के रूप में बाजार में उपलब्ध होता है।
इसकी खेती के लिए अधिक नमी वाली भूमि की आवश्यकता होती है। ऐसी भूमि जिसमें पानी अधिक देर तक रूकता है इसकी खेती के लिए अच्छी मानी जाती है। भारी चिकनी मिट्टी जिसका पी.एच.मान 5-7 के मध्य होता है, इसकी बढ़वार के लिए अच्छी मानी चित्र 1: गमले में कलमी साग जाती है इसकी खेतीके लिए बहुत अधिक देखभाल की आवश्यकता नहीं होती है।
प्रजातियाँ
भा.कृ.अनु.प.-भारतीय सब्जी अनुसन्धान संस्थान, वाराणसी के पास कलमी साग के कुल 13 जननद्रव्यों का संग्रहण है जिन्हें भारत के विभिन्न भागों से एकत्रित किया गया हैं। इनमें से प्रभेद संख्या 1-10 को गमलों या गीली जमीन पर भी आसानी से उगाया जा सकता है । प्रभेद संख्या 11 की पत्तियाँ चैड़ी होती है। जिसे गीली जमीन एवं पानी दोनों पर उगाया जा सकता है|
प्रसारण एवं रोपाई
इसका प्रसारण बीज एवं वानस्पतिक दोनों विधियों द्वारा किया जाता है। बीज द्वारा प्रसारण के लिए पहले इसकी पौध तैयार की जाती है। पौध तैयार करने हेतु जून-जुलाई कामहीना सर्वोतम होता है। नर्सरी में बीज की बुआई के बाद 5-6 दिन में पौधे उग आते हैं और 5-6 सप्ताह पुरानी पौध रोपड़ के लिए उपयुक्त मानी जाती है। कलमी साग का प्रसारण जड़ युक्त भूस्तारिकाओं द्वारा भी सम्भव है। कलम तैयार करने के लिए 10-20 सेमी. लम्बी एवं 4-8 पर्व वाली कलमें तैयार की जाती हैं। परीक्षणों में पाया गया है कि 5-10 सेमी. लम्बी दो पर्व युक्त कलमें प्रसारण के लिए उपयुक्त होती हैं।
कलमों को पूर्ण रूप से तैयार क्यारी में 40-50 सेमीके अन्तराल पर रोपड़ करते हैं। एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में रोपड़ के लिए 25000 कलमों की आवश्यकता होती है। अप्रैल-जून का महीना कलम रोपड़ के लिए अच्छा माना जाता है। इस समय लगाई गयी कलमों में वानस्पतिक बढ़वार अधिक होती है। कलमी साग का रोपड़ दो विधियों द्वारा किया जाता है। सूखे खेत में रोपड़ के लिए ऊँची क्यारियाँ और उनके साथ नालियाँ बनाकर रोपड़ किया जाता है। नालियों में पानी भरकर सिंचाई का कार्य एवं अत्यधिक पानी भरने की दशा में जल निकास का कार्य किया जाता है। गीले खेत में रोपड़ के लिए खेत की अच्छी तरह से जुताई करके खेत में कलमों को लगा दिया जाता है और कलमों को लगाने के बाद 15-20 सेमी. गहरा पानी भर दिया जाता है।
कटाई एवं उपज
कलमी साग के कोमल पौधे रोपड़ के 35-40 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं। ऊपर की हरी पŸिायों के साथ टहनियों को पानी की सतह से काट लिया जाता है। इससे पाश्र्व शाखायें निकलती हैं और पौधे की बढ़वार तेज होती है। सामान्यतया गर्मी एवं बरसात के मौसम में हर एक सप्ताह बाद कटाई की जाती है। सब्जी के रूप में एक महीनें में 4-5 कटाई की जा सकती है। जब पौधों में फूल आना प्रारम्भ हो जाता है तब कटाई रोक दी जाती है। दक्षिण एवंमध्य भारत में कलमी साग में अक्टूबर-नवम्बर के महीनें में पुष्पन प्रारम्भ हो जाता है। जुलाई से सितम्बर के बीच कुल कटाई एक हेक्टेयर क्षेत्रफल से लगभग 60-70 कुन्तल हरी पतियों की उपज प्राप्त होती हैं।
स्रोत-
- भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान