करेला अपने विशेष औषधीय गुणों के कारण सब्जियों में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है । इसकी खेती भारत वर्ष में खरीफ और जायद दोनों ऋतुओं में समान रूप से की जाती है । करेले के कच्चे फलों का रस मधुमेय के रोगियों के लिए भी बहुत उपयोगी है और उच्च चाप के मरीजों के लिए बहुत लाभदायक होता है । इसमें उपस्थित कडुवाहट (मोमोर्डसीन) मनुष्य के खून को साफ करने में काफी उपयोगी है ।
जलवायु
करेले की अच्छी पैदावार के लिए गर्म एवं आर्द्रता वाले भौगोलिक क्षेत्र सर्वोत्तम होते हैं । अतः इसकी फसल जायद तथा खरीफ दोनों ऋतुओं में सफलतापूर्वक उगाई जाती है । बीज अंकुरण के लिए 30-35 डिग्री सेन्टीग्रेड और पौधों की बढ़वार के लिए 32-38 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान उत्तम होता है ।
भूमि और भूमि की तैयारी
बलुई दोमट तथा जीवांश युक्त चिकनी मिट्टी जिसमें जल धारण क्षमता अधिक हो तथा पी.एच.मान. 6.0-7.0 हो करेले की खेती के लिए उपयुक्त होती है । पथरीली या ऐसी भूमि जहाँ पानी लगता हो तथा जल निकास का अच्छा प्रबन्ध न हो इसकी खेती के लिए अच्छी नहीं होती है । खेत की तैयारी के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल तथा बाद में 2-3 जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करते हैं । प्रत्येक जुताई के बाद खेत में पाटा चलाकर मिट्टी को भुरभुरी एवं समतल कर लेना चाहिए जिससे खेत में सिंचाई करते समय पानी कम या ज्यादा न लगे ।
करेले की उन्नत किस्में ( Bitter gourd Varieties )
1.पूसा दो मौसमी:
नाम के अनुसार यह किस्म दोनों मौसम (खरीफ व जायद) में बोई जाती है । फल बुआई के लगभग 55 दिन बाद तुड़ाई योग्य हो जाते हैं । फल हरे, मध्यम मोटे तथा 18 से.मी. लम्बे होते हैं ।
2.पूसा विशेष:
इसके फल हरे, पतले, मध्यम आकार के तथा खाने में स्वादिष्ट होते हैं । औसतन एक फल का वनज 115 ग्राम होता है । इसकी उपज 114-130 कुन्टल प्रति हैक्टेयर होती है ।
३.अर्का हरित:
इस प्रजाति के फल चमकीले हरे, आकर्षक, चिकने, अधिक गूदेदार तथा मोटे छिलके वाले होते हैं । फल में बीज कम तथा कड़वापन भी कम होता है । इसकी उपज 130 कुन्टल प्रति हैक्टेयर होती है ।
४.कल्यानपुर बारह मासी:
इस किस्म के फल काफी लम्बे तथा हल्के हरे रंग के होते हैं । यह किस्म खरीफ ऋतु के लिए उत्तम मानी जाती है ।
खाद एवं उर्वरक
एक हैक्टेयर खेत के लिए 50 कि.ग्रा. नत्रजन, 25-30 कि.ग्रा., फास्फोरस तथा 20-30 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हैक्टेयर की दर से तत्व के रूप में देनी चाहिए । नत्रजन की एक तिहाई मात्रा, फास्फोरस तथा पोटाश की पूरी मात्रा खेत की तैयारी के समय दें । बची हुई नत्रजन की आधी मात्रा बीज के 30 व 45 दिन बाद जड़ के पास टाप ड्रेसिंग के रूप में देनी चाहिए|
भूमि की तैयारी
खेत की तैयारी के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा बाद में 2-3 जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करना चाहिए । प्रत्येक जुताई के बाद पाटा चलाकर मिट्टी को भुरभुरी एवं खेत को समतल कर लेना चाहिए ।
बीज की की मात्रा एवं बुआई
एक हैक्टेयर खेत की बुआई के लिए 5-6 कि.ग्रा. मात्रा की आवश्यकता पड़ती है । एक स्थान पर 2-3 बीज 3-5 सेन्टीमीटर की गहराई पर बोना चाहिए ।
बुआई का समय
इसकी बुआई ग्रीष्म ऋतु में 15 फरवरी से 15 मार्च तक तथा वर्षा ऋतु के लिए 15 जून से 15 जुलाई तक करते हैं ।
बुआई की दूरी
करेले की बुआई जहां तक हो सके मेड़ांे पर करनी चाहिए । कतार से कतार की दूरी 1.5 से 2.5 मीटर और पौध से पौध (थाले से थाले) की दूरी 45 से 60 से.मी. रखनी चाहिए । अच्छी प्रकार से तैयार किए गए खेत में 2-5 मीटर की दूरी पर 50-60 से.मी. चैड़ी नाली बनाकर नालियों के दोनों किनारों पर बुआई करते हैं ।
सिंचाई
मिट्टी की किस्म एवं जलवायु पर निर्भर करती है । खरीफ ऋतु में खेत की सिंचाई करने की आवश्यकता नहीं होती परन्तु वर्षा न होने पर सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है । अधिक वर्षा के समय पानी के निकास के लिए नालियों का होना अत्यन्त आवश्यक है । गर्मियों में अधिक तापमान होने के कारण 4-5 दिन पर सिंचाई करना चाहिए ।
खरपतवार
वर्षा ऋतु या गर्मी में सिंचाई के बाद खेत में काफी खरपतवार उग आयें हो तो उनको निकाल देना चाहिए अन्यथा तत्व व नमी जो मुख्य फसल को उपलब्ध होना चाहिए बेकार चला जाता है । करेले में पौधे की वृद्धि एवं विकास के लिए 2-3 बार गुड़ाई करना चाहिए ।
सहारा देना
क्रेले की लताओं को लकड़ी का सहारा देने से फल जमीन के सम्पर्क से दूर रहते हैं । इससे फलों का आकार एवं रंग अच्छा रहता है तथा पैदावार भी बढ़ जाती है । इसके लिए प्रत्येक पौधे को सहारा देना चाहिए ।
फलों की तुड़ाई एवं उपज
जब फलों का रंग गहरे हरे से हल्का हरा पड़ना शुरू हो जाए तो फलों की तुड़ाई करने के लिए उत्तम माना जाता है । फलों की तुड़ाई एक निश्चित अन्तराल पर करते रहना चाहिए ताकि फल कड़े न हों अन्यथा उनकी बाजार में मांग कम होती है । बोने के 60-70 दिन बाद फल तोड़ने योग्य हो जाते हैं । यह कार्य हर तीसरे दिन करना चाहिए । औसत उपज प्रति हैक्टेयर लगभग 100-150 कुन्टल तक होती है ।
करेले के कीट एवं नियंत्रण
१.कद्दू का लाल कीट (रेड पम्पकिन बिटिल):
इस कीट का वयस्क चमकीली नारंगी रंग का होता है तथा सिर, वक्ष एवं उदर का निचला भाग काला होता है । सूण्ड़ी जमीन के अन्दर पाई जाती है । इसकी सूण्ड़ी व वयस्क दोनों क्षति पहुंचाते हैं । प्रौढ़ पौधों की छोटी पत्तियों पर ज्यादा क्षति पहुंचाते हैं । ग्रब (इल्ली) जमीन में रहती है जो पौधों की जड़ पर आक्रमण कर हानि पहुंचाती हैं । ये कीट जनवरी से मार्च के महीनों में सबसे अधिक सक्रिय होते हैं । अक्टूबर तक खेत में इनका प्रकोप रहता है । फसलों के बीज पत्र एवं 4-5 पत्ती अवस्था इन कीटों के आक्रमण के लिए सबसे अनुकूल है । प्रौढ़ कीट विशेषकर मुलायम पत्तियां अधिक पसंद करते हैं । अधिक आक्रमण होने से पौधे पत्ती रहित हो जाते हैं ।
नियंत्रण:
सुबह ओस पड़ने के समय रास का बुरकाव करने से भी प्रौढ़ पौधा पर नहीं बैठता जिससे नुकसान कम होता है । जैविक विधि से नियंत्रण के लिए अजादीरैक्टिन 300 पीपीएम, 5-10 मिली/लीटर या अजादीरैक्टिन 5 प्रतिशत, 0.5 मिली/लीटर की दर से दो या तीन छिड़काव करने से लाभ होता है । इस कीट का अधिक प्रकोप होने पर कीटनाशी जैसे डाईक्लोरोवास 76 ईसी., 1.25 मिली/लीटर या ट्राईक्लोफेरान 50 ईसी., 1 मिली/लीटर की दर से 10 दिनों के अन्तराल पर पर्णीय छिड़काव करें ।
२.फल मक्खी:
इस कीट की सूण्डी हानिकारक होती है । प्रौढ़ मक्खी गहरे भूरे रंग की होती है । इसके सिर पर काले तथा सफेद धब्बे पाये जाते हैं । प्रौढ़ मादा छोटे, मुलायम फलों के छिलके के अन्दर अण्डा देना पसन्द करती है, और अण्डे से ग्रब्स (सूड़ी) निकलकर फलों के अन्दर का भाग नष्ट कर देते हैं । कीट फल के जिन भाग पर अण्डा देती है वह भाग वहां से टेड़ा होकर सड़ जाता है । ग्रसित फल सड़ जाता है और नीचे गिर जाता है ।
नियंत्रण:
गर्मी की गहरी जुताई या पौधे के आस पास खुदाई करें ताकि मिट्टी की निचली परत खुल जाए जिससे फलमक्खी का प्यूपा धूप द्वारा नष्ट हो जाए तथा शिकारी पक्षियों को खाने के लिए खोल देता है । ग्रसित फलों को इकट्ठा करके नष्ट कर देना चाहिए । नर फल मक्खी को नष्ट करने लिए प्लास्टिक की बोतलों को इथेनाल, कीटनाशक (डाईक्लोरोवास या कार्बारिल या मैलाथियान), क्यूल्यूर को 6ः1ः2 के अनुपात के घोल में लकड़ी के टुकड़े को डुबाकर, 25 से 30 फंदा खेत में स्थापित कर देना चाहिए । कार्बारिल 50 डब्ल्यूपी., 2 ग्राम/लीटर या मैलाथियान 50 ईसी, 2 मिली/लीटर पानी को लेकर 10 प्रतिशत शीरा अथवा गुड़ में मिलाकर जहरीले चारे को 250 जगहों पर 1 हैक्टेयर खेत में उपयोग करना चाहिए । प्रतिकर्षी 4 प्रतिशत नीम की खली का प्रयोग करें जिससे जहरीले चारे की ट्रैपिंग की क्षमता बढ़ जाए ।
आवश्यकतानुसार कीटनाशी जैसे क्लोरेंट्रानीप्रोल 18.5 एससी., 0.25 मिली/लीटर या डाईक्लारोवास 76 ईसी., 1.25 मिली/लीटर पानी की दर से भी छिड़काव कर सकते हैं ।
करेले के रोग एवं नियंत्रण
१.चूर्णील फफूंद:
रोक का लक्षण पत्तियां और तनों की सतह पर सफेद या धुंधले धुसर दिखाई देती है । कुछ दिनों के बाद वे धब्बे चूर्ण युक्त हो जाते हैं । सफेद चूर्णी पदार्थ अंत में समूचे पौधे की सतह को ढंक लेता है । जो कि कालान्तर में इस रोग का कारण बन जाता है । इसके कारण फलों का आकार छोटा रह जाता है ।
नियंत्रण:
इसकी रोकथाम के लिए रोग ग्रस्त पौधों को खेत में इकट्ठा करके जला देते हैं । फफूंद नाशक दवा जैसे ट्राइडीमोर्फ 1/2 मिली/लीटर या माइक्लोब्लूटानिल का 1 ग्राम/10 लीटर पानी के साथ घोल बनाकर सात दिन के अंतराल पर छिड़काव करें ।
२.मृदुरोमिल फफूंदी:
यह रोग वर्षा एवं गर्मीं वाली दोनों फसल में होते हैं। उत्तरी भारत में इस रोग का प्रकोप अधिक है । इस रोग के मुख्य लक्षण पत्तियों पर कोणीय धब्बे जो शिराओं पर सीमित होते हैं । ये पत्ती के ऊपरी पृष्ठ पर पीले रंग के होते हैं तथा नीचे की तरफ रोयंदार फफूंद की वृद्धि होती है ।
नियंत्रण:
बीजों को मेटलएक्सल नामक कवकनाशी की 3 ग्राम दवा प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करके बोना चाहिए तथा मैकोंजेब 0.25 प्रतिशत पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए । छिड़काव रोग के लक्षण प्रारम्भ होने के तुरन्त बाद करना चाहिए । संक्रमण की उग्र दशा में साइमअक्सानिल $ मैंकोजेब 1.5 ग्रा./लीटर या मेटालैक्सिल $ मैंकोजेब 2.5 ग्रा./लीटर या मैटीरैम 2.5 ग्रा./लीटर पानी के साथ घोल बनाकर 7 से 10 दिन के अन्तराल पर 3-4 बार छिड़काव करें । फसल को मचान पर चढ़ाकर खेती करना चाहिए ।
३.फल विगलन रोग:
इस रोग से प्रभावित करेले के फलों पर कवक की अत्यधिक वृद्धि हो जाने से फल सड़ने लगता है । धरातल पर पड़े फलों का छिलका नरम, गहरे हरे रंग का हो जाता है । आर्द्र वायुमण्डल में इस सड़े हुए भाग पर रुई के समान घने कवक का जाल विकसित हो जाते हैं । भण्डारण और परिवहन के समय भी फलों में यह रोग फैलता है ।
नियंत्रण:
खेत में उचित जल निकास की व्यवस्था करना चाहिए । फलों को भूमि के स्पर्श से बचाने का प्रयत्न करना चाहिए । भण्डारण एवं परिवहन के समय फलों में चोट लगने से बचायें तथा हवादार एवं खुली जगह पर रखें ।
४.मौजैक विषाणु रोग:
यह रोग विशेषकर नई पत्तियों में चितकबरापन और सिकुड़न के रूप में प्रकट होता है । पत्तियां छोटी एवं हरी-पीली हो जाती है । सवंमित पौधे का ह्रास शुरू हो जाता है और उसकी वृद्धि रुक जाती है । इसके आक्रमण से पर्ण छोटे और पुष्प पत्तियों में बदले हुए दिखाई पड़ते हैं । कुछ पुष्प गुच्छों में बदल जाते हैं ग्रसित पौधा बौना रह जाता है और उसमें फलत बिल्कुल नहीं होता है ।
नियंत्रण:
इस रोग की रोकथाम के लिए कोई प्रभावी उपाय नहीं है । लेकिन विभिन्न उपायों के द्वारा इसको काफी कम किया जा सकता है । खेत में से रोग ग्रस्त पौधों को उखाड़कर जला देना चाहिए । इमिडाक्लोरोप्रिड 0.3 मिली/लीटर का घोल बनाकर दस दिन के अन्तराल में छिड़काव करें ।
स्रोत-
- भा.कृ.अनु.प.-भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान पो.आ.-जक्खिनी (शाहंशाहपुर), वाराणसी 221 305 उत्तर प्रदेश