उर्द के अच्छे उत्पादन में मृदा-प्रबन्ध क्रियाओं की भूमिका होती है। अतएव फसल के लिए पोषक तत्व प्रयोग का निर्णय सावधानीपूर्वक लिया जाना चाहिए। जीवांशमय खादों के भूमि एवम् फसल पर पड़ने वाले सामान्य प्रभाव के अतिरिक्त मृदा में स्थित कार्बन का उर्द की फसल द्वारा नाइट्रोजन संग्रह से सीधा घनात्मक सम्बन्ध होता है। अतएव फसल की बुआई के 15 दिनों पूर्व 15-20 टन अच्छी सड़ी गोबर की खाद का प्रयोग किया जाना चाहिए।
उर्द में नाइट्रोजन की कमी से पत्तियों का पीला पड़ना, कलियों, फूलों एवम् फलियों का झड़ना देखने को मिलता है। प्रारम्भिक वृद्धिकाल में जब तक जड़ ग्रन्थियाँ सक्रिय होकर नाइट्रोजन विवन्धन प्रारम्भ नहीं कर देतीं, आमतौर पर पीलापन लिए हरे रंग के दिखलाई पड़ते हैं। इस प्रकार बुआई के समय 10-15 किग्रा. की दर से नाइट्रोजन प्रदान करने वाले उर्वरकों का प्रयोग किया जाना चाहिए।
कम उपजाऊ भूमियों में नाइट्रोजन के प्रयोग का उपजाऊ भूमियों की तुलना में जीवाणुओं की नाइट्रोजन संग्रह-शक्ति पर कम प्रभाव पड़ता है,किन्तु इग्लेसान एवम् उनके सहकर्मियों के अनुसार यूरिया के माध्यम से उर्द में प्रति मिलीग्राम नाइट्रोजन के प्रयोग से 15 मिलीग्राम अतिरिक्त नाइट्रोजन संग्रह होता है। फसल के जीवनकाल में नाइट्रोजन की सर्वाधिक आवश्यकता पुष्पावस्था के पूर्व पाई गई है।
फास्फोरस की आवश्यकता पौधे के वृद्धि, एवम् विकास तथा जीवाणुओं की कार्यक्षमता के लिए होती है। उर्द का पौधा सम्पूर्ण जीवनकाल में समान रूप से फास्फोरस ग्रहण करता है, किन्तु फास्फोरस की सबसे अधिक आवश्यकता फलियाँ बनते समय तथा दानों के प्रौढ होते समय होती है। अतएव फास्फोरस का प्रयोग मृदा-परीक्षण के आधार पर ही किया जाना विशेष लाभकारी होता है।
6.5 पी.एच. मान से कम कर फास्फोरस की उपलब्धता घटने लगती है। फास्फोरस देने वाली खादों के प्रयोग से जड़-ग्रंथियों की संख्या, आकार तथा जीवाणुओं की क्रियाशीलता में वृद्धि होती है। इस प्रकार 400 किग्रा./हे. फास्फोरस प्रदान किया जाना चाहिए।
अन्य फसलों की अपेक्षा उर्द की फसल के लिए अधिक मात्रा में पोटाश आवश्यक होता है। पौधे को पोटाश की सर्वाधिक आवश्यकता वानस्पतिक वृद्धि के समय होती है तथा फलियाँ बनने की अवस्था में कम होने लगती है। पोटाश के प्रयोग से फलियों का झड़ना रूकता है, दाने अच्छी प्रकार भरते हैं तथा दानों के गुणों में भी वृद्धि होती है। इस प्रकार मृदा-परीक्षण के आधार पर 20 किग्रा./हे. पोटाश का प्रयोग किया जाना चाहिए।
उर्द के पौधे तथा जड़ ग्रन्थियों के जीवाणुओं की वृद्धि के लिए कैल्शियम, लोहा, बोरान, मैंगनीज, जस्ता तथा ताँबे की भी आवश्यकता होती है, किन्तु इनका प्रयोग प्रायः सभी भूमियों में आवश्यक नहीं पाया गया है। सल्फर की कमी की भूमियों में 20 किग्रा./हे. सल्फर तथा अधिक वर्षा वाली एवम् क्षारीय भूमियों में 5 किग्रा./हे. जिंक का प्रयोग करना चाहिए। सल्फर न मिलने की दशा में 200 किग्रा. जिप्सम का प्रयोग करना चाहिए और दाना बनते समय 2 प्रतिशत यूरिया के घोल का छिड़काव करने से उपज में वृद्धि होती है।बुआई के बाद तीसरे या चैथे सप्ताह में पहली निराई-गुड़ाई तथा आवश्यकतानुसार दूसरी निराई बुआई के 40-50 दिन बाद करनी चाहिए।
घास तथा चैड़ी पत्ती वाले खरपतवारों को रासायनिक विधि से नष्ट करने के लिए फल्यूक्लोरोलिन 45 ई.सी. नामक खरपतवारनाशी रसायन की 2.2 लीटर मात्रा को आवश्यक पानी में मिलाकर बुआई के पहले प्रति हेक्टेयर की दर से भूमि पर एक साथ छिड़काव करके मिट्ट में मिला दें या एलाक्लोर (लासो) 4 लीटर प्रति हेक्टेयर 700-800 लीटर पानी में घोलकर बुआई के तुरन्त बाद छिड़काव करें अथवा पेंडिमेथलीन 30 ई.सी. की 3.3 लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से 700-800 लीटर पानी में घोलकर बुआई के 2 दिन के भीतर जमाव से पूर्व छिड़काव करना चाहिए।
पोषक तत्व एवं खरपतवार प्रबंधन हेतु सुझाव
1. मृदा परीक्षण की संस्तुतियों के आधार पर ही उर्वरकों का प्रयोग करें। पिछली फसल में दिये गये पोषक तत्वों की मात्रा के आधार पर वर्तमान फसल की उर्वरक मात्रा का निर्धारण करना चाहिए।
2. दलहनी फसलों में सम्बन्धित राइजोबियम कल्चर का उपयोग भूमि शोधन एवं बीज शोधन में करना चाहिए।
3. तिलहनी एवं धान्य फसलों में पी.एस.बी. एवं ऐजोटोबैक्टर कल्चर का प्रयोग बीज शोधन एवं भूमि शोधन में करना चाहिए।
4.धान, गेहूँ जैसे फसल चक्र में ढेंचा या सनई जैसी हरी खाद का प्रयोग अवश्य करना चाहिए। फसल चक्र के सिद्धान्त के अनुसार फसल चक्र में आवश्यकतानुसार परिवर्तन करते रहना चाहिए।
5.उपलब्धता के आधार पर गोबर, फसल अवशेषों तथा अन्य कम्पोस्ट खादों का अधिकाधिक प्रयोग करना आवश्यक होता है।
6.खेत में फसल अवशिष्ट जैविक पदार्थों को मिट्टी में निरंतर मिलाते रहना चाहिए।
7. मृदा स्वास्थ्य बढ़ाने के लिए टिकाऊ खेती हेतु जैविक खेती अपनाने पर प्रयासरत रहना चाहिए।
8.आवश्यकतानुसार सल्फर, जिंक, कैल्शियम के अतिरिक्त अन्य सूक्ष्म पोषक तत्वों का प्रयोग अवश्य करना चाहिए।
9. प्रयोग किये जाने वाले पोषक तत्वों को फसल के अतिरिक्त अधिकांश मात्रा में खरपतवार ही अवशोषित करके नष्ट करते हैं। इसलिए खरपतवारों का समय पर उचित विधि से प्रबन्ध फसल के स्वास्थ्य एवं भूमि स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त आवश्यक होता है।
10.खरपतवारों का नियंत्रण निकाई एवं गुड़ाई विधि से करना ज्यादा लाभकारी रहता है क्योंकि इससे फसल में वायु संचार बढ़ता है तथा खरपतवारों का लाभ दायक उपयोग भी हो जाता है।
11.रासायनिक खरपतवार नाशियों की निर्धारित मात्रा का प्रयोग उचित समय पर करना आवश्यक होता है अन्यथा लाभ के बजाय हानि होने की सम्भावना रहती है।
12.खरपतवार नाशी रसायनों के प्रयोग हेतु हमेशा स्वच्छ जल का उपयोग करना चाहिए तथा फ्लैट फैन नाजिल वाले यंत्र का प्रयोग करना चाहिए।
Source-
- Krishi Vibhag Uttarpradesh.