आलू की फसल में पौध संरक्षण( Plant protection in Potato crop)

आलू रबी मौसम की एक नगदी फसल हैं। म. प्र. में यह लगभग 30000 हेक्टेयर क्षेत्र में उगाया जाता है। इसकी औसतन उपज 200-250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हैं। आलू एक ऐसी सब्जी है जो सभी वर्गो के लोगो द्वारा उपयोग में लाई जाती हैं। हमारी दैनिक उपयोगिता को देखते हुये इसकी जो उपज प्राप्त होती है वह बहुत ही कम है उपज में कमी आने का प्रमुख कारण आलू फसल में लगने वाले रोग व कीट हैं।

(अ)आलू के  प्रमुख रोग( Major Potato diseases)

आलू की फसल में कई प्रकार के फफूंद, विषाणु एवं जीवाणु जनित बीमारियों का प्रकोप होता हैं।

1. अगेती अंगमारी (अर्ली ब्लाइट)

यह रोग आल्टरनेरिया सोलेनाई नामक फफूंद द्वारा आलू उगाने वाले सभी क्षेत्रों में फसल पर आता है। यह रोग फसल पर 3-4 सप्ताह बाद दिखाई देने लगता हैं। रोग का विकास उच्च तापमान (20-26 से.ग्रे.) एवं बार बार अधिक वर्षा में होता हैं। यह एक मृदोढ़ रोग है तथा भूमि में गिरी हुई सुखी संक्रमित पत्तियों में फफूंद का कवक जाल एक वर्ष या इससे अधिक समय तक जीवित रहता है और नई फसल में संक्रमण फैलाता हैं। रोग की प्रारंभिक अवस्था में पौधों की निचली गोल या अंडाकार से हो जाते है व इनका रंग भी गहरा काला भूरा हो जाता हैं। इन पुराने धब्बों को ध्यान से देखं तो उनमें गोल चक्कर बनाती हुई हल्के रंग की धारियाँ या लकीरें दिखाई देती हैं। धीरे धीरे ये ध्ब्बे आपस में मिल जाते हैं और पूरी पत्ती सूखी दिखाई देती है।

रोग के अधिक प्रकोप की अवस्था में पत्तियाँ सूखकर व सिकुड़कर नीचे गिर जाती हैं और तनो पर भी भूरे काले धब्बे दिखाई देते हैं जिससे शाखाये या कभी कभी पूरा पौधा मर जाता है इस रोग का प्रभाव आलू कंदो में भी होता है। इस रोग से प्रभावित पौधे में कंद आकार में छोटे एवं संख्या में कम बनते हैं।

नियंत्रण

फसल पर 1.0 प्रतिशत यूरिया का छिड़काव 45 दिन तथा उसके बाद 8-10 दिन में दूसरा छिड़काव पर्णदाग रोग, एवं अगेती अंगमारी रोग की तीव्रता कम करता हैं। रोगी क्षेत्रों में फसल चक्र अवश्य अपनायें।

  1. आलू की खुदाई के तुरंत बाद भूमि पर पड़े फसल के रोगी पौध अवशेषों को इकट्ठा करके जला देना चाहिये।
  2. इस रोग के कवक एवं कवक जाल 30-45 दिन तक भूमि में पड़े रोगग्रस्त पौध अवशेषों पर जीवित रहते हैं। अतः 2 साल का फसल चक्र अपनाना चाहिये।
  3. रोग आने पर कापरआक्सी क्लोराईड फफूंदनाशक या डायथेन एम 45 नामक दवा का 2-3 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर छिड़ाकाव 10-15 दिन के अंतर से 2-3 बार करना चाहिये।

२. पिछेती अंगमारी (लेट ब्लाइट)

यह रोग फाइटोप्थोरा इनफसटेन्स नामक फफूंद द्वारा आता है इस रोग से आलू की फसल को बहुत अधिक हानि होती हैं क्योंकि इसका आक्रमण पौधे के हरे भागों पर होने से कंद आकार में छोटे तथा संख्या में कम रह जाते हैं जब यह रोग उग्र रूप धारण करता है तब संपूर्ण फसल नष्ट हो जाती है एवं प्रभावित आलू कंद खेत एवं भंडार गृह दोनों में सड़ जाते हैं। यह एक मृदो एवं बीजो दोनों प्रकार से फैलने वाले रोग है। इसका कवक आलू कंद बीजो के साथ साथ भूमि में पड़े रोगी पौधे अवशेषों में जीवित रहता है। इस रोग का विकास 80-90 प्रतिशत आद्रता एवं 15-20 डिग्री सेल्सियस तापमान पर तीव्र गति से होता हैं।

प्रारंभ अवस्था में पत्तियों पर पनीला विगलन दाग पत्तियों के सिरे अथवा किनारों से बनना प्रारंभ होता है जो बाद में भूरे काले रंग में परिवर्तित  हो जाते हैं। पत्तियों की निचली सतह पर रूई के समान सफेद बढता दाग दिखाई देते हैं जो इस रोग की पहचान हैं।अधिक प्रकोप की अवस्था में ये दाग पर्ण, वृंत, प्राक्ष एवं तने पर दिखाई देते हैं। तथा धीरे धीरे शाखाये एवंत ने नरम व कमजोर होकर टूट जाते तथा पूरा पौधा सूखकर मर जाता हैं। इस रोग का आक्रमण आलूकंदों पर भी होता हैं। रोगी पत्तियों का भूमि पर गिरने से भूमि की सतह के समीप वाले कंदो का संक्रमण पहले होता है। संक्रमित कंदो की त्वचा का रंग भूरा नीला हो जाता है तथा कंद सड़ने लगते हैं।

नियंत्रण
  1. बोने के लिये निरोगी बीजों का चयन करें तथा बीजों को डायथेन एम 45 नामक फफूंदनाशक दवा के 3 प्रतिशत के घोल में 25-30 मिनिट तक डुबोकर बीजोपचार करके बोयें।
  2. बीमारी के प्रारंभ होने के पूर्व ताम्रयुक्त फफूंदनाशक या डाइथेन एम 45 दवा 2.5-3 ग्राम प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल तैयार कर सुरक्षात्मक छिड़काव करें तो बीमारी के प्रकोप को रोका जा सकता हैं। बीमारी दिखने के पश्चात उपयुक्त दवाओं में से किसी भी एक दवा का 10-15 दिन के अंतराल से लगातार छिड़काव करने से प्रकोप को बढने से रोका जा सकता हैं।
  3. कुफरी ज्योति एवं कुफरी बादशाह जाति का प्रयोग करें।

३. पत्तियों के दाग

पत्तियों की धब्बों वाली बीमारियाँ सरकोस्पोरा और अन्य कई प्रकार के फफूंद के संक्रमण द्वारा उत्पन्न होता है। पर्णदाग की बीमारियों में पत्तियों पर पीले हरे रंग के दाग बनते हैं जो बाद में भूरे – काले रंग में परिवर्तित हो जाते हैं पत्तियों की निचली सतह पर हल्के मटमैले रंग की फफूंद जमा दिखाई देती हैं जो बाद में आकार में बढकर आपस में मिल जाते हैं और पूरी पत्तियाँ सूख जाती हैं जिससे उपज पर विपरीत प्रभाव पड़ता हैं।

नियंत्रण
  1. कापर फफूंदनाशक दवा का 3 प्रतिशत घोल का चिपकने वाले रसायन के साथ मिलाकर छिड़काव करना चाहिये।

४. स्लैक स्कर्फ

यह रोग राइजोक्टोनिया सोलेनी नामक फफूंद के द्वारा होता हैं एवं मृदोढ़ एवं बीजोड़ दोनों प्रकार के आलू में फैलती हैं। इस रोग से आलू कंद की सतह पर उभरी हुई भूरी रंग की पपड़ी आच्छादित हो जाती हैं। जब ये रोग ग्रस्त कंद बीज के रूप में प्रयोग करते हैं तो कंदो के द्वारा फफंूद उगते हुये या कोमल तनों पर आक्रमण कर देती हैं जिससे पौध की बाढ रूक जाती है। पुराने पौधों में जमीन की सतह पर स्थित पौधे तनों वाले हिस्से में भूरे रंग की पपड़ी आ जाती है जिससे पौधा सूख जाता हैं।

नियंत्रण

इस रोग के नियंत्रण हेतु बीज कंदो को बोने के पहले या षीतगृह में रखने के पूर्व 3 प्रतिशत डाइथेन एम 45 के घोल में 20-30 मिनट के लिये डुबाकर उपचारित करना चाहिये।

५. जीवाणु मुरझान रोग (बैक्टीरीयल बिल्ट)

यह रोग सूडोमोनास सोलेनेसिएक्म नामक जीवाणु द्वारा फैलती है यह एक मृदोढ एवं बीजोढ़ बीमारी है जो रोग प्रभावित बीजों के द्वारा फैलती हैं। रोग के बीजाणु एक बार भूमि में प्रवेष कर जाने पर वर्षो तक उसी खेत में जीवित रहते है। ऐसे खेतों में टमाटर, भटा एवं मिर्च की फसलें इस रोग से प्रभावित हो जाती हैं। ये जीवाणु जड़ी के द्वारा पोधे के अंदर प्रवेष करते हैं और जल्दी ही संख्या में गुणात्मकरूप से बढते हैं तथा भूरा सफद चिपचिपा द्रव निकालते हैं। ये जीवाणु कोशिकाये एवं चिपचिपा पदार्थ पौधे की कोशिकाओ को बंद कर देता हैं जिससे पौधे के वायवीय हिस्सों को पानी मिलना बंद हो जाता हैं और पौधे का सूखना प्रारंभ होता हैं व धीरे धीरे मर जाता हैं।

नियंत्रण
  1. गर्मी में खेत की गहरी जुताई करनी चाहिये तथा 2-3 वर्षो का फसल चक्र धान, गेंदा, गोभी, प्याज, लहसुन आदि से करना चाहिये।
  2. रोगी भूमि में टमाटर, भटा व मिर्च की रोपणी नहीं लेनी चाहिये क्योंकि इनसे रोग बड़ी तीव्र गति से फैलता है।
  3. बीज के लिये आलू कंदों का चयन ऐसे खेतों वाली फसलों से करें जहां इस रोग का प्रकोप न हुआ हो । आलू कंदो को बाने से पहले स्ट्रेप्टोसाईक्लीन नामक दवा 2 ग्राम 10 लीटर पानी में घोलकर 30 मिनट तक डुबोकर बीजोपचार करना चाहिये।

६. विषाणु रोग

आलू की फसल में कई प्रकार के विषाणु रोगों का प्रकोप होता तथा इनमें उपज अधिक प्रभावित होती हैं आलू के विषाणु जनित रोगों में से पत्ती मोड़क रोग सबसे अधिक भयंकर एवं व्यापक रोग है तथा इसके द्वारा 25-30 प्रतिशत आलू की उपज में कमी हो जाती हैं। यह रोग लगभग सभी आलू उगाने वाले क्षेत्रों में आता हैं।

यह पत्ती मोड़क विषाणु रोग मुख्य रोग वाहक कीट ‘माइजस परिसिकि‘ नामक माहू के द्वारा फैलता हैं। इस रोग का विषाणु कंदो में जीवित रहता हैं अतः संक्रमित कंदो को बीजों के रूप में प्रयोग नही करना चाहिये। इस रोग में संक्रमित पौधों में पत्तियाँ विभिन्न काणों से सिकुड़कर उपरी हिस्से से मुड़ जाती हैं। पौधे की निचली पत्तियाँ पहले मुड़ती है तथा बाद में उपरी हिस्से की पत्तियाँ भी मुड़ती हैं ये मुड़ी पत्तियाँ मोटी हो जाती हैं। पौधे बौने रह जाते हैं एवं वृद्धि रूक जाती हैं।

नियंत्रण
  1. खेतों में रोगी पौधों को देखते ही तुरंत आलू सहित उखाड़कर जला देना चाहिये।
  2. माहू के द्वारा ये रोग फैलता है अतः कीट के नियंत्रण के लिये मेटासिसटाक्स 1 मि. ली. दवा का एक लीटर पानी में घोल बनाकर 10-15 दिन के अंतर से छिड़काव करना चाहिये।

(ब) आलू के प्रमुख कीट ( Major Potato insects and pests)

आलू फसल में मुख्यतः कंदो को क्षति पहुंचाने वाले, पत्तियों से रस चूसने वाले तथा पत्तियों को कुतरकर खाने वाले कीटों का प्रकोप होता है। इन कीटों की पहचान एवं नियंत्रण क तरीके निम्नानुसार हैं-

१. भमिगत कीट

  1. कटुआ कीट – यह निषाचर कीट है। इसका वयस्क पतंगा गहरे भूरे रंग का होता हैं इसकी मादा पत्तियों की निचली सतह पर या नम जमीन में अंडे देती है। इन अंडो से 8-10 दिन में गहरे मटमैले रंग की गहरे धब्बों युक्त इल्लियां निकलती है पूर्व विकसित इल्ली 5 से.मी. लम्बी होती है। रात्रि के समय से इल्लियां पौधे के तनों को जो जमीन की सतह को काट देती है। आलू कंद बनने पर ये कंदो में छेद बनाकर उन्हे खराब कर देती हैं।
  2. सफेद ग्रव – ये जमीन में 10 से. मी. से 1 मीटर तक की गहराई में उपस्थित रहते हैं। ये ग्रव सफेद रंग के तथा इनका शरीर मुड़ा हुआ व पिछला हिस्सा चिकना एवं चमकीला होता हैं। इसका सिर भूरे रंग का होता हैं। शिशु अवस्था में ग्रव 1 से.मी. का जो कि विकसित होने पर 6 से.मी. लम्बा हो जाता है। ये ग्र्रव जमीन के अन्दर उपस्थित कंदो को छेद बनाकर खराब कर देते हैं।
नियंत्रण

इन भूमिगत कीटों के नियंत्रण हेतु आलू बीज लगाने से पहले क्लोरपायरिफास (0.5 प्रतिशत) चूर्ण 25 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई के पहले जमीन में मिलायें। फसल लग जाने के पश्चात और कीट का प्रकोप दिखे तो क्लोरपायरिफास 20 ई.सी. का 2 मि. लीटर दवा प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें।

कटुआ कीट के नियंत्रण हेतु खेत में जहां तहां घास की छोटी छोटी ढेर रख दें । इन ढेरियों के नीचे इल्लियां दिन के समय छुप जाती है, जिन्हे नष्ट किया जा सकता हैं। कच्ची गोबर के खाद का उपयोग करने से सफेद लट का प्रकोप बढ जाता है। अतः खेत में हमेशा सड़ी हुई गोबर की खाद का प्रयोग करें।

२. पर्ण कर्तक कीट

  1. इपीलेकना भृंग – ये आकार में पीले भूरे रंग के जिनके शरीर पर 28 काले धब्बे होते है। इनकी मादा 300-500 सिगरेट के आकार के पीले रंग के अंडे 10 से 15 के झुंड में पत्तियों के निचली सतह पर देती है। ये अंडे 3-4 दिनो में फूटते हैं जिनसे छोटे पीले रंग के ग्रव निकलते हैं। ये ग्रव वयस्क भृंग दोनों ही आलू की पत्तियों को बड़े ही भयानक रूप से खाकर नुकसान पहुंचाते हैं।
  2. पत्ती भक्षक इल्लियां – आलू की हरी फसल में हरा सेमिलूपर तम्बाखू की इल्ली एवं चने की इल्ली आक्रमण करती है। ये इल्लियां पत्तियों को भयानक रूप से खाती है। जिससे उसमें उपस्थित हरा पदार्थ जिसे क्लोरोफिल कहते है नष्ट हो जाता है। और पौधे की बढवार रूक जाती हैं जिससे उपज में कमी आती हैं। पर्ण कर्तककीटों के नियंत्रण हेतु संपर्क कीटनाशक जैसे – क्विनालफास 25 ई.सी. 2 मि.ली. दवाई प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
  3. टयूबर माॅथ – इसका पतंगा छोटा हल्के मटमैले रंग का लगभग 1 से.मी. लम्बा व पंखो पर गहरे भूरे या काले रंग का निषान होता है। यह कीट अक्टूबर से फरवरी तक खेतों में व मार्च से सितम्बर माह तक गोदामों में क्रियाशील रहते हैं। उनकी मात्रा 50 से 200 अंडे पत्तियों के निचली सतह पर देती हैं। ये अण्डे हल्के सफेद रंग के गोलाकार एवं 3-4 दिन में फूट जाते हैं इस कीट की इल्ली हल्के पीले रेग की लगभग 12 मि.मी. लम्बी होती हैं। ये इल्लियां कोमल पत्तियों तनों को खाती है एवं खुले कंदो में छेद कर देती हैं। इसके द्वारा ग्रसित कंदो में महीन-महीन सुरंगों जैसी रचनाएं बन जाती हैं।
नियंत्रण
  1. पर्ण कर्तक कीटों के नियंत्रण हेतु संपर्क कीटनाशक जैसे- क्विनालफास 25 ई.सी. या इन्डोसल्फान 35 ई.सी. 2 मि.ली. या फेनबेलरेट 20 ई.सी. आधा मि.लीत्र दवाई प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
  2. आलू की बोनी देर से करने पर टयूबर माथ तथा कटुआ कीट का प्रकोप बढ जाता हैं। अतः नवम्बर माह के प्रथम सप्ताह तक बोनी कर लें।
  3. खेतों में टयूबर माथ के नियंत्रण हेतु कार्बोरिल 50 प्रतिशत ई.सी. 1000 लीटर पानी में 2 किलो दवा घोलकर छिड़काव या 10 प्रतिशत कार्बोरिल धूल (डस्ट) 25 किलो प्रति हेक्टेयर दर से छिड़काव करना चाहियें।
  4. भण्डारण में टयूबर माथ के नियंत्रण हेतु आलू की परत पर रेत की पतली परत फैलाकर उस पर 1 प्रतिशत मैलाथियान धूल का भुरकाव करें। अगर आलू खाने हेतु भण्डारित किया जा रहा हो तो उस दवा का छिडकाव न करें। भण्डारण में नीलगिरी की पत्तियों से आलू को ढक कर भी उक्त कीट का प्रकोप कम किया जा सकता हैं।

३. रस चूसक कीट

  1. माहू – आलू की फसल को माहू की कई जातियां नुकसान पहुंचाती है। माईजस परिसिकी तथा एफीस, गौसिपी नामक माहू की जातियां आलू की फसल में विशेष रूप से हानि पहुचाती हैं। इसके शिशु एवं वयस्क पत्तियों का रस चूसकर पौधों में विभिन्न प्रकार के कारण उपज भी कम हो जाती है। इनके पंखहीन वयस्क हरे पीले रंग के व जिनका सिर बीच से हल्का दबा हुआ होता है उदर में कांटे के समान-उपांग उपस्थित रहते हैं जिन्हे कानिकल्स कहते हैं। पंखमुक्त वयस्क हरे रंग का व उनके सिर का रंग काला होता हैं।
  2. फुदका – ये हरे रंग के एवं इनका शरीर शंखवत आकार का होता हैं। इस कीट की कई जातियां रस चूसकर आलू की फसल को नुकसान पहुंचाती हैं। इस कीट से ग्रसित पत्तियां हल्के पीले रंग की होती है फिर धीरे धीरे भूरे रंग की होकर मुरझा जाती हैं। प्रकोपित पत्तियां फुदके के आक्रमण से लाल हो जाती हैं। इस कीट की कुछ जातियां आलू की फसल में कई प्रकार की बीमारियां फैलाती हैं।
  3. थ्रिप्स – यह अतिसूक्ष्म कीट काले अथवा पीले रंग के होते हैं। इनके वयस्क तथा शिशु पत्तियों को खुरचकर पत्तियों से रस चूसते हैं। थ्रिप्स पामी नामक जाति तना विगलन नामक विषाणु रोग के वाहक हैं।
नियंत्रण
  1. बोनी के पूर्व आलू को इमीडाक्लोप्रिड अथवा थायोमिथाक्साम के 0.1 प्रतिशत घोल से उपचारित करने से माहू तथा थ्रिप्स कीटों का लगभग 30-35 दिन तक नियंत्रण किया जा सकता हैं।
  2. फोरेट 10 प्रतिशत दानेदार दवा 15 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से बोनी के पहले कतारों में भूमि में डालने से फसल को रस चूसक व अन्य भूमिगत कीटों से भी 30-35 दिन तक बचाया जा सकता है।
  3. मिथाइल डिमेटान 25 ई. सी. 1 लीटर या डाइमिथोएट 30 ई.सी. 800 मि.ली. दवा की मात्रा 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़काव दुहरायें।
  4. आलू बीज उत्पादन में माहू की सेख्या 20/100 पत्ती से कम होना चाहिये। इसे क्रांतिक संख्या कहते है। क्रांतिक संख्या मौसम के अनुसार दिसम्बर माह के अंतिम सप्ताह से जनवरी के प्रथम सप्ताह के अंत तक पार हो जाती है। इसके पूर्व ही दैहिक कीटनाशक जैसे डायमिथोएट या मिथिल डेमिटान का छिड़काव करें। बीज उत्पादन हेतु बोनी शीघ्र कर 80 दिन की अवस्था में डीहाल्मिंग (पाल काटना) करने से माहू के प्रकोप से फैलने वाले विषाणु रोगो से बचाव होता हैं।

 

Source-

  • Jawaharlal Nehru Krishi VishwaVidhyalaya,Jabalpur(M.P.)
Show Buttons
Hide Buttons