विषाणु
आलू की फसल पर लगने वाले छः सामान्य विषाणु तथा चार पादप प्लाज्मा बीमारियां है। ये या तो अकेले या फिर दो या दो से अधिक के संयोग में आलू फसल में संक्रमण कर बीमारी फैलाते है। हाल ही में मध्य भारत मे आलू का तना सड़न (नेक्रोसिस) रोग का सामना हुआ है। यह टमाटर के धब्बेदार गलन विषाणु द्वारा उत्पन्न होता है।अक्तूबर माह के दौरान जब तापमान अधिक होता है तो उस स्थिति में यह आलू की अगेती फसल की पत्तियों तथा तनों पर 80 प्रतिशत तक थ्रिप्स द्वारा संचरण (ट्रांसमिट) किया जाता है। इससे उपज में काफी कमी हो जाती है।
यह विषाणु थ्रिप्स द्वारा फैलता है। अच्छी बात यह है कि यह विषाणु कन्दों द्वारा वहन नहीं किया जाता है। आलू तुर्क (सिपडंल) कन्द वायराइड भी बसंत मौसम में उगाये जाने वाली आलू की फसल में पाया गया है। इनके अलावा उत्तर भारत में भी आलू की सितम्बर-अक्तूबर में बोई गयी अगेती फसल में आलू अग्रक कुन्चन विषाणु के फैलने का पता चला है। यह विषाणु सफेद मक्खी (व्हाइट फ्लाई) के द्वारा फैलता है।
पहचान की विधियां
इनकी पहचान की कई विधियां है। जिनमें निम्नलिखित प्रमुख है:
a)बीमारी के लक्षण,b) संचरण, c) उत्तक रासायनिक क्रिया, d) सीरमीय,
e) किणवय सीरमीय (एलाइजा), f) न्यूक्लिक एसिड स्पाॅट हाइब्रिडाइजेशन, g) पी.सीआर.
h) इलक्ट्राॅन सूक्ष्मदर्शी।
लक्षण
आमतौर पर सभी विषाणु अकारकी एवं प्रकृति में भिन्न होते है तथा परपोषी पौधे/प्रजातियों में परिवर्तनशील लक्षण उत्पन्न करते है। बीते वर्षों में विषाणु के लक्षण तथा उनके बीमार पौधों से स्वस्थ संकेतक पौधों में संचरण का माध्यम रस, कलम तथा कीट थे जिनके द्वारा इनकी पौधों में मौजूदगी की पुष्टि की जाती थी।
संचरण
विषाणु रोगों का संचरण तीन प्रकार से होता है।
(क) रस संचरणः जिस पौधे की जांच की जानी है उससे देही रस निचोड़ कर संकेतक
पौधों की पत्तियों पर किसी अपघर्षक (एबरेसिव) का प्रयोग कर संरोपित कर देते है।
विषाणु तथा उनकी पहचान केलक्षण
विषाणु का नाम | लक्षण |
आलू विषाणु एक्स (पी.वी.एक्स) | हल्के रंग से गहरे हरे रंग की चितकबरेपन की चकती के साथ पत्तियों में
हल्के से मध्यम उग्रता वाला चितकबरापन दृष्टिगोचर होता है जोकि सामान्य हरे रंग के साथ इधर उधर फैला रहता है। कभी-कभी हरीमाहीनता के साथ ठिगनी पौध वृद्धि भी पायी जाती है। |
आलू विषाणु एस (पी.वी.एस.) | हल्केरंग के चकत्ती के साथ हल्का अगोचर चितकबरापन जो हरे रंग के
साथ इधर उधर फैला रहता है। |
आलू विषाणु एम (पी वी एम) | नई पत्तियों में हल्का मोज़ेक/चितकबरापन तथा ऊपरी पत्तियों के किनारे लहरदार होने के साथ-साथ ऊपर की तरफ मुड़े होते है एवं पत्तियों की हल्की हरीमाहीनता (फोटोप्लेट ग्.6) पाई जाती है। |
आलू विषाणु ए (पी वी ए) | मोजे़क जैसा किन्तु धुंधला चितकबरापन, कभी कभी पत्ती में विकृतियां,
कुछ प्रजातियों में सिरा उत्तकक्षय, कदाचित पृष्ठरूक्षता, चमकदार पत्तियां, दिखाई देती है। |
आलू विषाणु वाई (पी वी वाई) | हल्के हरे रंग से गहरे हरे रंग की चकत्तियों केसाथ पत्तियों का चितकबरापन सामान्य हरे रंग व उग्र मोज़ेक केसाथ इधर उधर फैला रहता है। उत्तकक्षयी धब्बों का बनना तथा शिरा क्षय एवं बाद में सूखी पत्तियों का तनेपर लटके रहना विशेष लक्षण है। |
आलू का एक्यूबा मोज़ेक विषाणु
रूक्ष पृष्ठ मोज़ाइक (एक्सवाई) |
पुरानी प्रजातियों में पुरानी पत्तियों पर चमकीले पीले धब्बे/चकत्तियां
दिखाई पड़ती है। |
व्यांकुचन (एक्स$ए) | यह विषाणु एक्स एवं ए के संयुक्त संक्रमण सेहोता है। संक्रमित पत्तियां धब्बेदार तथा लहरदार किनारों केसाथ विकृति दर्शाते है। पर्णपटल स्तर पूर्णतया सलवटेदार होजाती है। |
पत्ती मुड़न (लीफ रोल) | पत्ती मुड़न की विभिन्न अंश दशायें अवलोकित की गई है। पहले नीचे की पत्तियां मुड़ती है, फिर ऊपर की पत्तियां मुड़ना शुरू करती है। नीचे की पत्तियों के किनारे लहरदार हो जाते है तथा पत्तियों के किनारे ताम्बे के रंग केसाथ पत्तियां चमड़े की तरह सख्त हो जाती है तथा उंगलियो के बीच दबाने पर चटकनेया खड़-खड़ाने की आवाज़ करती है |
तना क्षय (सड़न) रोग
(स्टेम नेक्रोसिस) |
अधिक तापमान पर पर्णवृन्त शिराओं एवं तनों का उत्तकक्षय होना जो
अपनी स्फीति खोदेता है तथा आसानी सेटूटनेवाला बन जाता है। |
आलू अग्रक कुन्चन विषाणु
(पोटेटोएपिकल लीफ कर्ल वायरस) |
पौधों का ठिगनापन, पत्तियों की बड़ेअनियमित पीले धब्बें केसाथ रूख
पृष्ठता, मोज़ेक और शीर्ष पत्तियों का कुंचित होना। |
तुर्क कन्द वायराइड
(स्पीन्डल ट्यूबर वायराइड) |
पर्णवृन्त का छोटा होना तथा इसका 45॰ कोण पर झुकाव हरीमाहीनता
केसाथ ठिगनी वृद्धि, पर्णक ऐंठा हुआ तथा कन्द तुर्क केआकारनुमा हो जाता है। |
सीमान्त पीलायन
(मार्जीनल फ्लोरीसेंस) |
शीर्ष पर्णक का सीमान्त पीलापन, झुर्रीदार तथा थोड़ा खुरदरा एवं मोटा
होना, ठिगनी वृद्धि, बहुत अधिक जड़ों का निकलना तथा बहुत कम आलुओं का तने के आधार पर बनना। |
नीलारूण शीर्ष मुड़न
(परपल टाप रोल) |
शीर्ष पर्णो का आधार भाग से मुड़ने के साथ ही बैंगनी रंग का होना, फूले
हुए पर्णसन्धि, काफी संख्या में कक्षस्थ शाखाओं का निकलना। |
कूर्चिका (विचिज ब्रूम) | काफी संख्या में साधारण पत्तियों के साथ तने झाड़ू जैसी शक्ल अपना
लेते हैं। |
आलू का फाइलोडी | फूल पंखुड़ियां सफेद या बैगनी होने के बजाए हरी होजाती है तथा गुच्छे
जैसी शक्ल अपना लेती है| |
- पत्तियों से अधिक संरोपित रस को पानी से धो देते है|तथा पौधे को कांच घर में रखकर उनकी निगरानी करते है।
- संरोपण के 5-6 दिन बाद संरोपित तथा नई विकसित पत्तियों पर लक्षणों का अवलोकन करते है।
- संकेतक पौधे दृश्य युक्त लक्षण उत्पन्न करते है। जैसे उत्तकक्षयी, क्षत, धब्बे, शिराओं का हरीमाहीनता/उत्तकक्षय, शिरा पट्टन लक्षण, शिरा स्पष्टता तथा सर्वांगी चित्ती।
- नई विकसित पत्तियों या संरोपित पत्तियों पर लक्षण, विषाणु के मौजूद होने का संकेत देते है।
- संकेतक परपोषी पर लक्षण का न पाया जाना विषाणु की अनुपस्थिति को दर्शाता है।
ख)कलम संचरण
यह एक दूसरी विधि है जिससे विषाणु रोग का किसी स्वस्थ पौधे में संचरण होता है।
- बीमार पौधे के ऊपर के तने या शायन को पन्नी से तिरछी कलम के रूप में स्वस्थ परपोषी पौधे पर बांधकर वेज कलम या कलिका विधि द्वारा जोड़ते है या इसे किसी स्वस्थ पौधे के साथ इनार्चिंग विधि द्वारा जोड़ा जा सकता है।
- कलम में दो परपोषकों (बीमार तथा स्वस्थ) के उत्तक सम्पर्क में आते है तथा उनका संयोग होता है। यदि विषाणु संचरण हेाता है तब संकेतक पौधेां की ऊपर बढ़ रही नई पत्तियों/तनों में विषाणु के लक्षण दृष्टिगोचर होते है।
- इन लक्षणों की अनुपस्थिति में यदि कोई असमानता दिखाई देती है तो वह पोषक तत्वों की कमी या दैहिक विकार के कारण होती है।
ग)कीट द्वारा संचरण
कीट जैसेः माहूँ, थ्रिप्स, पर्ण फुदका, सफेद मक्खी आदि विषाणु/फाइटोप्लाज्माज संचरण के ज्ञात वाहक है।
- पहले स्वस्थ कीटों को बीमार पौधे का रस चूसने दिया जाता है। उसके बाद उन्हें स्वस्थ संकेतक पौधों पर कुछ समय के लिए रस चूसने के लिए स्थानान्तरित कर दिया जाता है।
- एक विशिष्ट रस चूसने की संरोपण अवधि तक संकेतक पौधे पर कीटों को पलने के बाद उन्हें कीटनाशकों द्वारा मार दिया जाता है।
- संरोपित पौधों को बाह्य संक्रमण के बचाने के लिए कीट रोधी कांच घर/नेट हाऊस में रखते है ।
- यदि संकेतक पौधों पर 5-10 दिन के बाद लक्षण उत्पन्न होते है तो यह विषाणु/फाइटोप्लाज्माज के उपस्थिति का संकेत देतेहै
उत्तक रासायनिक विधि
उत्तक रासायनिक विधि में परीक्षण किए जाने वाले पौधे के तने के निचले भाग की गांठ से एक बहुत पतला अंश काटकर उसे रोडामीन
बी अथवा एक प्रतिशत फलोरोग्युसिनोल-एचसीएल के घोल में एक मिनट तक उपचारित करने के पश्चात् साधारण सूक्ष्मदर्शी के नीचे परीक्षण करते है। प्राथमिक पोषवाह का नारंगी/लाल रंग जहां पर लिगनिन का एकत्राीकरण हुआ है, आलू के पत्ती मुड़न विषाणु की उपस्थिति को दर्शाता है।
सीरमीय विधि
सीरमीय विधि विषाणु रोगों के खोजने पहचानने की एक बहतु ही विश्वसनीय विधि है सीरमीय परीक्षण के र्कइ तरीके है। इन तरीको की मदद से समय-समय पर विषाणुओं की पहचान या पता लगाया जाता रहा है| यह सभी तरीके एक ही सिद्धान्त पर आधारित है|किन्तु इनमें स्लाइड अभिश्लषण परीक्षण सबसे आसान है जिसे अति सवं दने शील एलाइजा विधि (एलिसे) की उपलब्धता के पर्वू बडे पैमाने पर आलू के बीज परीक्षण कायक्र्म में अपनाया जाता था। सीरमीय परीक्षण की प्रक्रिया निम्न प्रकार है|
(क) स्लाईड अभिश्लेषण परीक्षण
किसी भी विशिष्ट विषाणु के विरूद्ध परीक्षण आरम्भ करने से पूर्व उसके लिए विशिष्ट सान्द्र प्रतिसीरम को पतला करके प्रयोग में लाया जाता है। प्रतिसीरम को इस स्तर तक पतला करते है| कि वह अपरिष्कृत रस में भी विषाणु कण से प्रतिक्रिया कर सकें तथा नग्न आंखों से आसानी से थक्कों के रूप में देखे जा सकें।
विधि
पत्तों को अंगूठे एवं अंगुलियों के बीच रखकर मसलते है और उसका रस निचोड़ते है। इसके अतिरिक्त हस्तचालित रस निचोड़ने वाले यंत्रा से या फिर चिकनी सतह पर प्लास्टिक की छोटी थैलियों में पत्तियों को रखकर लकड़ी के बेलन से रगड़ कर एवं दबाकर रस निचोड़ा जाता है।
- पत्तियों को थैलियों या रस निचोड़ने वाले यंत्रा द्वारा रस निकालने या रगड़ते समय तो उनमें समान मात्रा में फास्फेट बफर मिलाया जाता है किन्तु इसके विपरीत खेतों में परीक्षण करते समय पत्तियों को अंगूठे व उंगली के बीच मसल कर पत्तियों का रस निकालना पड़ता है। ऐसी स्थिति में फास्फेट बफर का मिलाना संभव नहीं होता है।
- कांच की स्लाइड के एक सिरे पर एक बूंद रस व एक बूंद विशिष्ट प्रतिसीरम का रखते है तथा उन्हें एक साथ मिलाते है।
- तुलना (कन्ट्रोल) के लिए पत्ती रस की एक बूंद व आसूत जल की एक बूंद कांच की स्लाइड के दूसरे सिरे पर रख कर आपस में मिलाते है।
- दोनों नमूनों को रस के थक्काकरण के लिए निरीक्षण करते है।
- यदि प्रतिसीरम मिले हुए नमूने में एक मिनट के अन्दर थक्के बन जाते है तो उसे बीमार या अस्वस्थ माना जाता है।
- तुलना वाले (कन्ट्रोल) नमूनों मे किसी प्रकार के थक्के नहीं बनते है।
एलाइजा परीक्षण
एलाइजा परीक्षण के लिए दो मुख्य बातें है|
1.प्रतिसीरम से एन्टीबाॅडीज (ग्लोबुलीन प्रोटीन) का थक्का विधि से अलग करना
अमोनियम सल्फेट के सन्तृप्त घोल से फिर ऐंटीबाॅडीज को प्रीसीपीटेट करते है। उसके बाद उस घोल को सेंट्री फ्यूज करके प्रोटीन को ट्यूब की पेंदी में इकट्ठा करते है जिसे फिर एक मिली लीटर फास्फेट बफर में घोल लेते है। अब इस घोल में से अमोनियम सल्फेट
की मात्रा को डाइलेसिस प्रक्रिया द्वारा घोल से निकाल देते है। ऐसा करने के लिए 2-3 इंच लम्बे 4-6 मि.मी. चैड़े डाइलेसिस ट्यूब के एक सिरे पर दो गांठ लगाते है और फिर दूसरे सिरे से माईक्रो पिपेट द्वारा घोल को भरते ह® और घोल से भरने के बाद इस सिरे पर भी दो गांठ लगाते है।
घोल दोनों सिरों पर लगाई गांठों के बीच रहता है इसके बाद इस टयूब को बीकर में आधा लीटर फास्फेट बफर में रखते है और प्लास्टिक चढ़ी चुम्बक छड़ का प्रयोग करते हुए बिजली के मेगनेटिक स्टर्र पर फ्लास्क को रख कर कोल्ड रूममें 24 घंटे तक डाॅइलाईज करते है इसके बाद घोल को प्लास्टिक की छोटी ट्यूब में उलट देते ह®। इसमें पहले प्रतिसीरम एंटीबाॅडीज प्रोटीन की मात्रा को इस्पेक्टोफोटोमीटर के जरिये नापते है।
2.एंटीबाॅडीज से एलाइजा परीक्षण किट तैयार करना
एन्टीबाॅडीज का ऐलकलाइन फाॅस्फेटज इन्जाइम की एक मिलीग्राम मात्रा प्रति एक मिलीग्राम एन्टीबाॅडीज के हिसाब से दूसरे रासायनों की उपस्थिति में रात भर 4-5॰ सें. तापमान में रख कर लेप किया या जोड़ा जाता है। इसके तत्पश्चात् उसमें से थोड़ी सी मात्रा लेकर उसको बफर में 1:100, 1:200, 1:500, 1:1000, 1:2000, 1:4000, 1:5000 एवं 1:10,000 के अनुपात में हल्का (डायलूट) करके तथा विषाणु युक्त रस को 1:10 या 1:20 या 1:100 के अनुपात में हल्का (डायलूट) करके एलाइजा विधि का पालन करते हुए उसके हल्केपन की सान्द्रता का सामान्यकरण (स्टडर्डाईजेशन) किया जाता है और इस सामान्य करत विलायक को भविष्य में एलाइजा परीक्षण कार्यों में प्रयोग करते है। विषाणु शुद्धिकरण प्रक्रिया की उन्नति के साथ ही छः विषाणुओं के विरूद्ध उनके विशिष्ट एण्टी बाॅडी से युक्त प्रतिसीरम का उत्पादन सम्भव हो सका है।
यद्यपि उनमें से कुछ की प्रतिसीरम (पी.वी.एक्स., पी.वी.एस. तथा पी.वी.एम.) काफी प्रबल प्रतिक्रिया करती है तथा स्लाइड/हरितवलक अभिश्लेषण परीक्षण में उनकी प्रतिक्रिया नग्न आंखों द्वारा देखी जा सकती है परन्तु अन्य (पी.वी.ए., पी.वी.वाई तथा पी.एल.आर.वी.) विषाणुओं की एन्टीबाॅडीज़ काफी कमजोर प्रतिक्रिया दर्शाते हैऔर इनकी प्रतिक्रिया काफी मुश्किल से दृष्टी गोचर होती है। ऐसी दशाओं में इन विषाणुओं का पता लगाने में स्लाइड अभिश्लेषण परीक्षण असफल ही रहता है। इस परीक्षण विधि की संवेदनशीलता केवल 60 प्रतिशत तक ही होती है।
1970 में एलाइजा तकनीक के विकास से स्लाइड अभिश्लेषण परीक्षण में आने वाली तमाम कठिनाइयों पर निजात प्राप्त कर ली गयी। यह परीक्षण अत्यधिक संवदेनशील है। इसे एन्जाइम लिंकड इम्यूनोसाॅरबेन्ट ऐस्से (एलाइजा) के रूप में जाना जाता है। इसके द्वारा अधिकांश विषाणुओं का पता लगाया जा सकता है तथा ज्यादा नमूनों के लिए कम प्रतिसीरम व मानव शक्ति खर्च करके मितव्ययता से परीक्षण किये जा सकते है। इसे कम जगह में तथा दो दिनों में 95 प्रतिशत से अधिक विश्वसनीयता के साथ बहुत ही शुद्धता से सम्पन्न किया जा सकता है। यह स्लाईड अभिश्लेषण परीक्षण से कहीं ज्यादा संवदेनशील है।
3.पत्तियों के नमूने लेना
छः सप्ताह बाद जब आलू के पौधे पर पांच से छः पत्तियां निकल आती ह® तब परीक्षण के लिए पत्तियों के नमूने लिए जाते ह®।
- पौधों के विभिन्न स्थानों (भागों) की पत्तियों में विषाणुओं की उपस्थिति एवं सान्द्रता भिन्न-भिन्न होती है, अतः विषाणु परीक्षण में त्राुटि से बचने के लिए पौधे के विभिन्न भागों से नमूने लेना जरूरी होता है। इसलिए सीरमीय परीक्षण के लिए पत्तियों के नमूने पौधे के तीनों भागों (ऊपरी, मध्यम व निचली पत्तियों) से लिए जाते है।
4.एलाइजा परीक्षण की विधि
यह परीक्षण चार चरणों में सम्पन्न होता हैः पहले चरण में विषाणु के प्रतिरक्षी (ऐन्टीबाॅडिज) को लेप (सम्पुष्टन) घोल (कोटिंग बफर)
में निलम्बित करते है तथा एक मिली ग्राम प्रति मिलीलीटर युक्त घोल को उच्च गुणवत्ता वाले पाॅलिस्टरीन के बने माइक्रोटाइटर प्लेट के छोटे-छोटे कूपों में 100 से 200 माइक्रो लीटर प्रति कूप की दर से उड़ेलते है। इसके बाद इन प्लेटों को 37 डिग्री सेल्सियस तापमान
पर 3 घण्टे के लिए इंक्यूबेट करते है। समय पूरा होने पर कूपों के लेप से अधिक प्रतिरक्षी घोल को निकाल देते है तथा कूपों को तीन-चार बार धोवन बफर में धोकर साफ करते ह® और धोवन तौलिये की गद्दी पर थपथपा कर सुखाते है।
दूसरे चरण में प्रतिजन (विषाणु युक्त 1:5 या 1:10 अनुपात में निलंबित रस) को माइक्रोटाइटर प्लेटों के कूपों में 100 से 200 μस (माइक्रोलीटर) की दर से भरते है तथाइसे 4-8 डिग्री सेल्सियस तापमान पर रात भर के लिए (इंक्यूबेट) या 37॰ से. तापमान पर 3 घंटे के लिए समयकालीन करते है इसके बाद अतिरिक्त रस को छिटक कर निकाल देते है तथा प्लेट के कूपों को चार बार धोवन बफर में धोकर साफ करते है तथा तौलिये या टिशू पेपर की गद्दी पर थपथपा कर सुखाते है।
तृतीय चरण में एन्जाइम सम्पुष्टित (चिन्हित) प्रतिरक्षी विलयन को 100 से 200 μस (माइक्रोलीटर) प्रति कूप की दर से भरते है। इसे 37 डिग्री सेल्सियस तापमान पर 3 घण्टे के लिए इन्क्यूबेट करते है। इसके बाद अतिरिक्त विलयन को प्लेट से बाहर निकाल
कर धोवन बफर से 3-4 बार प्लेट की सफाई करते है तथा कपड़े या टिशू पेपर को गद्दियों पर थपथपा कर कूपों को पूर्ण रूप से पानी रहित किया जाता है।
चैथे चरण में इन प्लेटों में उपरोक्त दर से ही नाइट्रो फिनाइल फास्फेट युक्त सब्सट्रेट विलयन को डालते है तथा इसे सामान्य कमरे के तापमान पर आधे से एक घण्टे के लिए अंधेरे में रखते है।
- एल्कलाइन फास्फेटज के प्रयोग की दशा में प्लेटों की जांच आँखों द्वारा अथवा प्रकाशीय सघनता माप एलाइजा रीडर यंत्रा द्वारा 405 नैनोमीटर अथवा पेनीसीलेज के प्रयोग की दशा में 620 नैनोमीटर पर अथवा हाॅर्स रेडिस परआॅक्सिडेज के प्रयोग की दशा में 450 नैनोमीटर पर करते है|
- एल्कलाइन फास्फटेज के साथ विषाणु की उपस्थिति में सब्सट्रेट पीले रंग का तथा हाॅर्स रेडिश परआॅक्सीडेज के साथ लाल रंग देता है। पेनीसीलीनेज के साथ विषाणु की उपस्थिति पर नीले सब्सट्रेट का रंग पीला हो जाता है।
- पौधों की जांच स्लाइड अभिश्लेषण परीक्षण अथवा एलाइजा द्वारा उपरोक्त वर्णित विधियों द्वारा की जाती है। यदि किसी क्लोन का एक भी नमूना विषाणु द्वारा संक्रमित पाया जाता है तो उस दशा में उस क्लोन के चारों कन्दों को त्याग दिया जाता
है।
न्यूक्लिक एसिड धब्बा संकरण
यह वायरस परीक्षण की तीसरी विधि है और परीक्षण निम्न प्रकार से सम्पन्न होता है|
- एक ग्राम पत्ती या कन्द के नमूने को 0.5 मिलीलीटर लवण अवकारक बफर में मिलाकर घोट/पीस लेते है।
- इसे 4 डिग्री सेल्सियस तापमान पर 10,000 चक्कर प्रति मिनट की दर से 15 मिनट तक अपकेन्द्रित (सेंट्रीफ्यूज) करते है।
- न्यूक्लिक अम्ल को 20-22 प्रतिशत पी.ई.जी. 600 के साथ अवक्षेपित (तलछट) करते
है। - 100 माइक्रो लीटर बफर में इसका पुनः निलम्बन करते है।
- इसके प्राकृतिक गुणों को 15 मिनट तक 7 प्रतिशत फार्मलडिहाइड सेलाइन साइट्रेट के साथ 60 डिग्री सेल्सियस तापमान पर बदलते है या निस्तम्ब करते है।
- निर्वात मिनीफोल्ड का प्रयोग करते हुए इसे नाइट्रो सेल्यूलोज की झिल्ली पर धब्बाकरण/चिन्हित करते है।
- धब्बायुक्त झिल्ली को 85 डिग्री सेल्सियस तापमान पर दो घण्टे तक सेंकते है।
- रात भर इसे पूर्व संकरित (च्तमीलइतपकप्रम) करते है।
- तत्पश्चात् इसे 32च बक्छ। (32 पी सी डी एन ए) प्रोब (जांचक) के साथ 22-48 घण्टे तक संकरित करते है।
- इसकी 2-4 दिनों तक आॅटो रेडियोग्राफी करते है।
- फिल्म विकसित करते है।
- इस पर काला/गहरा धब्बा वायरस/वायराॅयड की उपस्थिति का संकेत करता है।
खेतों में विषाणुओं का पता लगाना (खेत परीक्षण)
स्लाइड अभिश्लेषण अथवा एलाइजा परीक्षण उपरोक्त वर्णित विधियों के अनुसार करते है। व्यक्तिगत तौर पर पौधे की जांच तब करते है जब पौधे 30-40 से.मी. की ऊंचाई प्राप्त कर लेते है।
- विषाणु संक्रमित क्लोन (कृन्तक) को कन्दों सहित खेत से बाहर निकाल देते है
- बीमार तथा निष्फल प्रकार के पौधों की रोगिंगः अवांछनीय पौधों का शेष फसल में से निकालना (रोगिंग) बीज उत्पादन का एक बहुत ही महत्वपूर्ण पहलू है। इससे बीज की गुणवत्ता बनाई रखी जा सकती है।
- जहां एक ओर उग्र चित्ती ग्रसित पौधों को आसानी से पहचाना जा सकता है वहीं दूसरी ओर हल्की चित्ती से ग्रसित पौधों को पहचानना कठिन होता है।
- विषाणुओं के लक्षणों में काफी भिन्नताएं होती ह® इसलिए विषाणुओं के लक्षणों की पहचान एक विशिष्ट दक्षता का कार्य है। फिर भी, विषाणुओं के लक्षणों को पहचानने वाला प्रशिक्षित एवं माहिर व्यक्ति इस कार्य को काफी चपलता व आसानी से कर लेता
है।
इस प्रकार के विषाणुओं को पहचानने के लिए प्रकाश की सघनता को ध्यान में रखना पड़ता है। आमतौर पर हल्के चित्ती रोग (माइल्ड मोज़ेक) के लक्षणों को पहचानने के लिए प्रातः 10-11 बजे तक ओस के सूख जाने के बाद तथा शाम के 3 से 5 बजे का समय सबसे उपयुक्त होता है।
- निरीक्षक के खेत में घूमने की दिशा भी महत्वपूर्ण होती है। निरीक्षक की पीठ सूर्य की ओर होनी चाहिए जिससे उसके शरीर की छाया बीमार पौधों को पहचानने में मदद कर सके।
- निरीक्षण के दौरान अवांछित पौधों को खेत से बाहर निकाल देते है।
- बुवाई के 45-50, 75 तथा 85 दिन के बाद प्रत्येक पौधे का तीन बार ध्यानपूर्वक निरीक्षण करते है।
- पिछली फसल के दौरान खेत में छूट गए कन्दों से निकलने वाले व पीले रंग के दिखने वाले पौधों को खेत से निकाल देते है। इस प्रकार के पौधे कभी-कभार कतार से बाहर उग जाते है और पहाड़ी क्षेत्रों में बाह्य (बाहरी) आकार में भिन्न होते है।
- किसी भी निरीक्षण में पाए गए असामान्य दिखने वाले एवं प्रस्फुटित पौधे या जो पौधे चित्ती (मोज़ेक), पत्तियों का गुड़न तथा फ्लेविसेन्स लक्षण दर्शाते है|उन्हें खेत से बाहर निकाल देते है।
- बहुसंख्यक पौधों से आकारिकी में भिन्न दिखने वाले पौधे एवं अलग रंग लिए पुष्प युक्त पौधों को भी खेत से बाहर निकाल देते है।
कवकीय तथा जीवाणु रोग
कवकीय या जीवाणु बीमारियाँ दो प्रकार की होती है| एक पर्णीय व दूसरी कन्द जनित। पर्णीय बीमारियों में पिछेता झुलसाए अगेता झुलसाए फोमा झुलसाए सरकोस्पोरा पर्ण ध्ब्बा तथा उकठा/मुरझाना आदि बीमारियां होती है जबकि
कन्द जनित बीमारियों में पिछेता झुलसाए शुष्क गलनए आद्र गलनए साधारण खुरण्डए काली रूसीए चूर्णी खुरण्डए कोयला गलनए गुलाबी गलन तथा भूरा गलन आदि प्रमुख है। इन बीमारियों की पहचान के लक्षण तालिका 12 में दिये गए है|
कीट एवं पीड़क
आलू की फसल को परोक्ष या अपरोक्ष रूप से चार प्रकार के कीट नुकसान पहुचाते है। जहां एक ओर प्रत्यक्ष रूप से नुकसान पहुचाने वाले कीट पत्तियों, तनों एवं कन्दों को क्षति पहुचाते है वहीं दूसरी ओर अपरोक्ष नुकसान पहुंचाने वाले कीट रस चूस कर क्षति पहुचाते है। यह कीट विषाणुओं एवं फाइटोप्लाज्मा का संचारण भी करते है।
पौध संरक्षण
पहाड़ी क्षेत्रों में माहूं एवं सफेद सुण्डी की रोकथाम के लिए बुवाई के समय थिमेट 10जी का 10 किलोग्राम प्रति हैक्टर की दर से तथा उसके बाद मिट्टी चढ़ाते समय समान दर से थिमेट 10जी का प्रयोग करते है।
स्रोत-
- केन्द्रीय आलू अनुसंधान संस्थान,शिमला