आँवला की खेती

औषधीय गुण व पोषक तत्वों से भरपूर आँवला के फल प्रकृति की एक अभूतपूर्व देन है। इसका वानस्पतिक नाम एम्बलिका ओफीसीनेलिस है। आँवला के फलो मे विटामिन ’सी’ (500-700 मि.ग्रा./100 ग्राम) तथा कैल्शियम, फास्फोरस, पोटेश्यिम व शर्करा प्रचुर मात्रा में पायी जाती है। साधारणतया आँवला को विटामिन ’सी’ की अधिकता के लिए जाना जाता है, इसमें उपलब्ध टेनिन जैसे गैलिक व इलेजिक अम्ल होता है, जो कि विटामिन ‘सी’ को आक्सीकरण (आक्सीडेसन) से बचाता है, जिससे फलों में विटामिन ’सी’ की उच्च मात्रा इनके परिरक्षित करने पर भी बनी रहती है। इसके फलों का उपयोग खाद्य पदार्थ जैसे मुरब्बा, स्कवैश, अचार, कैण्डी, जूस, जैम, आयुर्वेदिक दवाईयां जैसे त्रिफला चूर्ण, च्यवनप्राश, अवलेह, सौन्दर्य सामग्री जैसे आंवला केश तेल, चूर्ण, शेम्पू, इत्यादि बनाने में किया जाता है।

आँवला अनेक रोग जैसे स्कर्वी, कब्ज, अतिसार, श्वेत प्रदर, मधुमेह, कफ, इत्यादि के उपचार में गुणकारी होता है। इसके अतिरिक्त इसका उपयोग स्याही, रीठा, शेम्पू इत्यादि बनाने में भी किया जाता है। आँवले के विविध औषधीय व पौष्टिक गुण तथा कठिन जलवायु में पनपने की क्षमता को देखते हुए राजस्थान में भी इसकी खेती की विपुल संभावना है। यहाँ के कोटा, जयपुर, उदयपुर, अलवर, अजमेर इत्यादि क्षेत्रो में इसकी खेती ने पहले ही व्यवसायिक रूप ले रखा है।श् केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान, जोधपुर में आँवला की छः प्रमुख किस्मों का मूल्यांकन किया गया, जिससे पता चलता है कि उत्तर पश्चिम राजस्थान के सिंचित क्षेत्रों में आँवला की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती हैं।

 

जलवायु एवं भूमि

आँवला एक उपोष्ण जलवायु का वृक्ष है, परन्तु यह ऊष्ण जलवायु में भी अच्छी तरह फलता-फूलता है और शुष्क क्षेत्रों में सि़ंचाई दारा इसकी बागवानी संभव है। इसकी खेती के लिये गहरी, उपजाऊ बलुई दोमट से चिकनी मिट्टी जिसमें जल निकास की व्यवस्था हो, अधिक उपयुक्त रहती है। यह काफी हद तक क्षारीयता को सहन करने की क्षमता रखता है। वैज्ञानिक खोजों से पता चला है कि आँवले को क्षारीय लवणीय भूमि में भी लगाया जा सकता है जिसमें विनिमयशील सोडियम (ईएसपी) 30-32 प्रतिशत, पीएचमान 9.5 तथा 10-12 ईसी तक हो, हाँलाकि ऐसी स्थिति में भूमि व जल प्रबन्धन के लिए विशेष उपाय करने पड़ते हैं।

राजस्थान की जलवायु में फरवरी-मार्च के महीने में इसकी पत्तियां झड़ जाती हैं और पेड़ कुछ समय के लिए पत्ती विहीन रहता है। मार्च-अप्रैल माह में नयी बढ़वार के साथ फूल व फल लगने की प्रक्रिया शुरु हो जाती है जो अप्रैल अन्त तक चलती है । फल लगने व उनके विकास का समय कुछ इस प्रकार से पूर्व निर्धारित होता है कि ग्रीष्मकाल की अधिक तापमान व गर्म हवा का आँवला पर कम कुप्रभाव पड़ता है। फिर भी फूल आने के समय यदि तापमान 30ह् सेन्टीग्रेड से ऊपर हो जाये व हवा में नमी भी कम हो तो फलो लगने की प्रक्रिया पर विपरित असर पड़ता है। आरम्भिक वर्षों में पौधों को पाले से बचाने के उपाय करने चाहिए।

 

आँवला की  किस्मों

आँवले की तीन मुख्य किस्में बनारसी, चेकैया व फ्राँसिस हैं तथा इन्ही किस्मों से चयन प्रक्रिया द्वारा कई नयी किस्मों का विकास किया गया है । इनमें कृष्णा, कंचन, एन.ए. 6, एन.ए. 7, एन.ए. 9 व एन.ए. 10 प्रमुख हैं। प्रमुख किस्मो का विवरण निम्न प्रकार है।

१.बनारसी

यह शीघ्र पकने वाली किस्म है। इसके फल बड़े आकार के तथा पारदर्शक होते है। लेकिन मादा पुष्पों की संख्या कम होने के कारण फलन कम होता है तथा अधिक फल गिर जाते है। इसकी भण्डारण क्षमता कम होती है। इसमें गूदा रहित होता हैं।यह शीघ्र पकने वाली किस्म है। इसके फल बड़े आकार के तथा पारदर्शक होते है। लेकिन मादा पुष्पों की संख्या कम होने के कारण फलन कम होता है तथा अधिक फल गिर जाते है। इसकी भण्डारण क्षमता कम होती है। इसमें गूदा रेशा रहित होता हैं।

२.कंचन (एन.ए. 4)

यह किस्म चकैया से चयनित करके निकाली गयी है जो मध्य अवधि की किस्म है। मादा पुष्पों की संख्या 4.7 प्रतिशत मध्यम आकार के फल, गोल, हल्के पीले रंग के अधिक गूदा युक्त होते है। गूदा रेशायुक्त होने के कारण यह प्रजाति गूदा निकालने हेतु एवं अन्य परिरक्षित उत्पाद बनाने हेतु औद्योगिक इकाइयों द्वारा अधिक पसन्द की जाती है। इसके फलों का परिपक्व समय मध्य नवम्बर से मध्य दिसम्बर होता है। यह महाराष्ट्र व गुजरात के शुष्क व अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में अधिक उगायी जाती है।

३.कृष्णा (एन.ए. 5)

यह बनारसी किस्म से चयनित करके निकाली गयी है। यह एक अगेती किस्म है तथा इसके फल बड़े आकार के, ऊपर से तिकोने, सतह चिकनी, सफेद हरी से हल्की पीली होती है। फल का गूदा हल्के गुलाबी रंग का कम रेशायुक्त तथा अत्यधिक कसैलापन लिए होता है। फल मध्यम भण्डारण क्षमता वाले होते है। अपेक्षाकृत अधिक मादा पुष्पों के कारण इसकी उत्पादन क्षमता बनारसी किस्म के पेड़ों से अधिक होती है। इसके फल मध्य अक्टूबर से मध्य नवम्बर तक पकते है। इस किस्म के फल मुरब्बा, कैण्डी व जूस बनाने के लिए अधिक उपयुक्त है।

४.नरेन्द्र आँवला-6 (एन.ए. 6)

यह किस्म चकैया किस्म से चयनित करके निकाली गयी है जो कि मध्यम अवधि किस्म है। इस किस्म के वृक्षों का फैलाव अधिक, फलों का आकार मध्यम
से बड़ा, गोल, सतह चिकनी, हरी पीली चमकदार, आकर्षक, गूदा लगभग रेशा रहित एवं मुलायम होता है। इसके फल मध्य नवम्बर से मध्य दिसम्बर तक पकते है। इस किस्म के फलों से मुरब्बा, जेम व कैण्डी बनायी जाती हैं।

५.नरेन्द्र आँवला-7 (एन.ए. 7)

यह फ्रांसिस (हाथीझूल) के बीजू पौधे से चयनित एक मध्य अवधि की किस्म है। यह नियमित एवं अधिक फलने वाली, जिसमे मादा पुष्पों की संख्या औसतन 9.7 तथा फल पकने का समय मध्य नवम्बर से मध्य दिसम्बर तक, फल मध्यम से बड़े आकार के, ऊपर से तिकोने, सतह चिकनी, हल्के नीले रंग के व ऊतक क्षयन रोग से मुक्त होते है। गूदे में रेशे की मात्रा एन.ए. 6 से अधिक होती है। अधिक फल लगने के कारण शाखाएं टूट जाती है। यह किस्म राजस्थान, बिहार, मध्यप्रदेश तथा तमिलनाडू में अधिक उगाई जाती है।

६.नरेन्द्र आँवला-10 (एन.ए. 10)

यह बनारसी किस्म के बीजू पौधे से चयनित एक अधिक फल देने वाली किस्म है। फल देखने में आकर्षक, मध्यम बड़े आकार के, चपटे गोल, सतह कम चिकनी, हल्के पीले रंग वाली, गुलाबी पन लिए होती है। फलों का गूदा हल्का हरा व रेशे की मात्रा अधिक होती है। इसके अतिरिक्त आनंद-1, आनंद-2 व आनंद-3 गुजरात से विकसित की गयी है। उत्तर पश्चिमी राजस्थान के शुष्क क्षेत्रों के लिए उपयुक्त कौनसी किस्में चुनें, यह जानने के लिए केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान, जोधपुर में आँवला की छः प्रमुख किस्मों का मूल्यांकन किया गया।

पौधे लगाने के पश्चात दस वर्ष तक पौधों की वृद्धि एवं उपज (सारणी-1) का विश्लेषण किया गया जिससे यह निष्कर्ष निकला कि इस क्षेत्र के लिए कंचन, चेकैया व एन.ए. 7 किस्में अन्य की अपेक्षा अधिक उपयुक्त हैं। सबसे अधिक फलों की उपज कंचन नामक किस्म में पायी गयी तथा चेकैया व एन.ए. 7 इस लिहाज से क्रमशः दूसरे व तीसरे स्थान पर रही। इनमें कंचन किस्म के फलों का आकार सबसे छोटा रहता हैं।  अतः यह किस्म अचार के लिए ठीक पाई गई व मुरब्बे के लिए अनुपयुक्त है। इसी तरह चेकैया किस्म के फलों का आकार बड़ा होने के कारण मुरब्बे के लिए उपयुक्त पाइ गई।

एन.ए. 7 का फल मध्यम आकार का रहा तथा मुरब्बा व अचार दोनों के लिए श्रेष्ठ पाई गई। विटामिन ’सी’ की मात्रा सबसे अधिककंचन व कृष्णा में तथा चेकैया किस्म में सबसे कम प्राप्त हुई। इस प्रकार फलों की उपज के आधार पर यह निष्कर्ष निकला कि शुष्क क्षेत्रों में सीमित सिंचाई के साथ आँवला की किस्में यथा कंचन, चेकैया व एन.ए. 7 की बागवानी करना अधिक लाभकारी हो सकता है। फ्रांसिस किस्म की उपज भी लगभग एन.ए. 7 के बराबर थी लेकिन इस किस्म में ऊतक क्षयन रोग का अधिक प्रकोप होने के कारण अनुपयुक्त मानी गई।

 

पौधे लगाना

चूँकि आँवला के पेड एक बार स्थापित हो जाने के पश्चात् कम से कम 30-40 वर्ष तक फल देते रहते है, इसलिए चुनी गई किस्मों के चश्मा चढे हुए पौधे को किसी प्रमाणित पौधशाला से ही प्राप्त करने चाहिए। उपयुक्त किस्मों के पौधों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के पश्चात पौधों को खेत में योजनाबद्ध तरीके से लगाने चाहिए। सर्व प्रथम मई के महीने में 7 X 7 मीटर की दूरी रखते हुए 1 घन मीटर आकार के गड्ढे खोद कर कुछ दिन खुला छोडने के बाद 15-20 किलो ग्राम गोबर की परिपक्व खाद प्रति गड्ढा खेत की मिट्टी पानी देकर मिट्टी को जमने दे अथवा एक वर्षा होने तक इन्तजार करें।

जुलाई माह में इस प्रकार तैयार गड्ढो के केन्द्र में पौधे प्रतिरोपित कर तुरन्त सिंचाई करें। इसके बाद नियमित पानी देते रहें। अगर पानी की समुचित व्यवस्था हो तो पौधों को फरवरी-मार्च में भी लगाया जा सकता है।आरम्भ के तीन-चार वर्ष आँवला पोधौें मे़ं वृद्धि व विकास का समय होता है तथा इनमें फलत नहीं होती है । अतः तब तक इनके बीच की जगह का समुचित उपयोग खरीफ में दलहनी फसले जैसे ग्वार, मूँग, मोंठ तथा रबी में मटर, बैंगन इत्यादि लगा कर करना चाहिए।

 

सिंचाई

सिंचाई की बारम्बारता भूमि की किस्म तथा जलवायु पर निर्भर करती है । शुष्क क्षेत्रों में ज्यादातर बलुई मिट्टी पायी जाती है इसलिए थोड़ा-थोड़ा पानी बार बार देना पडता है। अगर वर्षा ठीक-ठाक हो तो जुलाई से सितम्बर तक सिंचाई की आवश्यकता नहीं रहती है लेकिन इसके बाद दिसम्बर तक 15 दिन के अन्तराल व मार्च से जून तक प्रति सप्ताह सिंचाई करनी चाहिए। बून्द-बून्द संयंत्र द्वारा पौधों की आयु के अनुसार मासिक सिंचाई की मात्रा एवं समय को सारिणी 2 मे दर्शाया गया है ।

 

खाद व उर्वरक

आँवला में सामान्यतः निम्नलिखित मात्रा में खाद व उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिएगोबर की खाद व सुपर फाॅस्फेट की पूरी मात्रा तथा म्यूरेट आॅफ पोटाश व यूरिया की आधी मात्रा मार्च-अप्रैल में डालें व शेष बची यूरिया तथा म्यूरेट आॅफ पोटाश की मात्रा अगस्त-सितम्बर में फल लगने के बाद देवें। बोराॅन तत्व की कमी से फलों की गुणवत्ता में कमी आ सकती है, अतः सितम्बर से अक्टूबर माह मे 0.6 प्रतिशत बोरेक्स का 2-3 छिडकाव 10-15 दिन के अन्तराल पर करना चाहिए, इससे फलों का विकास अच्छा होता है तथा फलों का झड़ना भी कम हो जाता है।

कटाई-छॅटाई

आॅवले में कटाई-छँटाई की कोई विशेषश्आवश्यकता नहीं पडती है। आरम्भिक वर्षों में 2-3 फीट की ऊँचाई तक एकल तना रखकर 4-5 मजबूत शाखाएं जो सभी दिशाओं में निकली हों, का चयन करके अन्य को हटा देना चाहिए। प्रतिवर्ष कुछ शाखाएं सूखती रहती हैं उन्हें मार्च-अप्रैल में पत्तियां गिरने के पश्चात काट देना चाहिए।

 

स्रोत-

  • केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान, जोधपुर

 

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