अश्वगंधा एक औषधीय फसल है जिसका उपयोग आयुर्वेदिक तथा यूनानी औषधियों में बहुतायत से किया जाता है । मध्यप्रदेश में अभी मालवा क्षेत्र में इसकी खेती मंदसौर जिले में की जा रही है परन्तु अब मध्यप्रदेश के उन सभी जिलों में इसकी खेती करने की सलाह दी जा रही है जिन जिलों में अश्वगंधा फसल के लिए उपयुक्त भूमि एवं वातावरण है, व्यापारिक दृष्टि से इसकी सूखी जड़ की मांग कलकत्ता, मद्रास, बंबई, बैंगलोर, कोचीन, अमृतसर, सिलिगुड़ी एवं विदेशों में बढ़ रही है ।
अश्वगंधा की जड़ का उपयोग टानिक के रूप में स्त्री, पुरूष, बच्चे व वृद्ध सभी के लिए उपयोगी है । जड़ का प्रयोग अनिंद्रा, अतिरिक्त रक्त चाप, मूर्छा, चक्कर, सिरदर्द, तंत्रिका तंत्र, हृदय रोग, शोध शूल, रक्त कोलेस्ट्राल कम करने में बहुत लाभकारी है । जड़ के चूर्ण का सेवन 3 सप्ताह से 3 माह तक करने से शरीर में ओज, स्फूर्ति, बल सर्वाग, शक्ति, चैतन्यता एवं कांति आती है । सभी प्रकार के वीर्य विकार दूर होकर बल वीर्य बढ़ाता है । धातुओं की पुष्टि व वृद्धि करता है । शुक्राणुओं की वृद्धि कर एक प्रकार से कामोत्तेजक की भूमिका निभाता है ।
पाचन शक्ति सुधारता है, शारीरिक दुबलापन मिटाता है । मांस बढ़ाता है, मांस मज्जा की वृद्धि कर उनका शोधन कर जीवनावधि बढ़ाता है एवं शरीर सुगठित बनाता है । सभी प्रकार के बात विकार और दर्द, खास कर गठिया और आमबात को नष्ट करता है । यह बच्चों को सूखा राग में लाभकारी है, सूखा रोग में यह ग्रामीणों की चिरपरिचित औषधि है । यह वायु कफ के विकारों, खाँसी एवं श्वासनाशक है । यह क्षयनाशक, रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाला, यह नारी को गर्भ धारण योग्य बनाने वाला, प्रसव के बाद दूध बढ़ाने वाला, बल बढ़ाने वाला, नया श्वेत प्रदर दूर करने वाला, कमजोरी, कमर दर्द आदि दूर कर शरीर सुंदर बनाता है । यह जीव कोषों व अंग अवयावों की आयु में वृद्धि करती है तथा असमय जरावस्था नहीं आने देती ।
पुष्टि बल वर्धन हेतु इससे श्रेष्ठ आयुर्वेद के विद्वान कोई और नहीं मानते हैं । यह क्षय आदि रोगों में भी लाभ करती है । इसकी सूखी जड़ का उपयोग चर्मरोग फेफड़ों के रोग, अल्सर तथा मंदाग्नि के उपचार हेतु किया जाता है । इसकी हरी पत्तियों का लेप जोड़ों की सूजन तथा अस्थि क्षय के उपचार हेतु किया जाता है । कमर दर्द, कुल्हे का दर्द दूर करने के लिए भी इसकी जड़ों का उपयोग किया जाता है इसके प्रयोग से रूकी हुई पेशाब भी ठीक से उतर जाती है और मरीज को आराम मिलता है । अश्वगंधा चूर्ण को नियमित लेने से व्यक्ति की आयु की वृद्धि होती है तथा इसके सेवन से हीमोग्लोबिन, लाल रक्त कणों की संख्या व बालों का कालापन बढ़ता है जिनकी कमर झुक जाती है उन्हें भी फायदा होता है ।
रासायनिक संगठन
अश्वगंधा की जड़ों में 13 प्रकार के एल्कोलाइयड पाये पाते हैं मुख्य एल्कोलाइयड इस प्रकार हैं । कुस्को हाइगींन, एनाहाइगींन ट्रोपींन, सूडोट्रोपीन, ऐना फेरीन, आसोपेलीन, टोरिन, तीन प्रकार के ट्रोपिसिटग्लोएट, निकोटिन, सोमनी करीन, सोमनी करीनाइन, सोमनीन, विथोनिन तथा विथेनोवाइना मुख्यतः विथोनिन तथा सोमानीफेरीनयन का उपयोग औषधि के रूप् में किया जाता है जड़ में और भी एल्कोलाइडस पाये जाते हैं जैसे – स्टार्च, शर्करा, ग्लाइकोमाइडस, हिप्ट्र, हेणिट्रयाकाल्टेन, अलिसटाल एवं विदनोल ।
इसकी जड़ों में लोहा, स्पर्टिक ट्रिप्योपेन, वेलीन, टाक्रोसीन, प्रोलीन, ऐलेनिन तथा ग्लाइसिन आदि अमीनों एसिड भी मुक्तावस्था में पाये जाते हैं पत्तियों में विथानो लाइड कुल के यौगिक अल्कोलड, ग्लूकोस एवं मुक्त एमोनो अम्ल भी पाये जाते हैं । तने व शाखाओं में रेशा बहुत कम तथा प्रोटीन, केल्शियम व फास्फोरस बहुत अधिक पाया जाता है । जड़ तना व फल में टेनिन एवं फ्लोवोनाइड भी होते हैं । इसके फलों में प्रोटीन को पचाने वाला एन्जाइम कैमेस भी मिलता है ।
जलवायु
अश्वगंधा की फसल रबी और खरीफ में की जाती है । रबी में उष्ण से समशीतोष्ण जलवायु, औसत तापमान 20-40 डिग्री से.ग्रे. तक हो । खरीफ में कम वर्षा की आवश्यकता पड़ती है औसतन 100 से.मी. वर्षा में इसकी फसल ठीक आती है ।
भूमि
इसकी खेती हल्की से मध्यम भूमि में की जा सकती है जैसे बलुई दोमट से हल्की रेतीली जिसका जल निकास अच्छा हो एवं पी.एच.मान 6-8 तक होना चाहिए ।
खेती की तैयारी
चूंकि अश्वगंधा की फसल रबी और खरीफ में ली जा सकती है इसलिए खरीफ के लिए मानसून प्रारंभ होने से पहले ही दो तीन बार हल बखर से भुरी भुरी एवं पाटा से समतल कर लेना चाहिए साथ ही गोबर का पचा हुआ खाद इसी समय भूमि में अच्छे से मिला देना चाहिए ।
अश्वगंधा की किस्में
1. जवाहर अश्वगंधा – 20 – यह किस्म करीब 6 – 8 क्विंटल प्रति हेक्टेयर सूखी जड़ों का उत्पादन देती है ।
2. डब्लू.स. 10 – 134 – यह किस्म मंदसौर अनुसंधान केन्द्र से विकसित की गई है जिसकी सूखी जड़ों का उत्पादन 8 क्विंटल प्रति हेक्टेयर आता है ।
3 .पौशिता किस्म – यह सीमेप लखनऊ से विकसित की गई है जिसकी सूखी जड़ों का उत्पादन अधिक होता है तथा गुणवत्ता अधिक होती है ।
बोनी का समय
खरीफ – अश्वगंधा के लिए भूमि में नमीं चाहिए । अतः जब एक दो बार पानी गिर जाये और भूमि संतृप्त हो जावे तब बोनी करना चाहिए । इसके लिए जुलाई का अंतिम या अगस्त का प्रथम सप्ताह उपयुक्त होता है ।
रबी – रबी सीजन में फसल लेने के लिए सिंचाई होना जरूरी है प्रायः अक्टूबर में बोनी करनी चाहिए ।
बीज की मात्रा
10 किलो बीज प्रति हेक्टेयर छिड़काव पद्धति से लगता है परन्तु कतारों से बोनी करने में बीज कम लगता है ।
बोनी की विधि
अश्वगंधा को अधिकतर छिटका विधि से बोते हैं साथ ही कतारों में भी इसकी बोनी करते हैं इस विधि से बोनी करने से निंदाई गुड़ाई करने में सरलता रहती है ।
इस फसल को रोपा लगाकर भी कर सकते हैं परन्तु इस विधि से लागत ज्यादा लगती है बोनी के पूर्व बीज थायरम या अन्य बीज उपचारित दवा से 3 ग्राम दवा, प्रति किलो ग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करना चाहिए । अच्छा उत्पादन लेने के लिए करीब 80 – 100 पौधे प्रति वर्गमीटर या 8 – 10 लाख पौधे प्रति हेक्टेयर होना चाहिए ।
विशेष
अश्वगंधा फसल का बीज बहुत छोटा होता है इसलिए इसकी बोनी बड़ी सावधानी से करना चाहिए । इसका बीज अधिक गहरा और न जमीन के ऊपर रहना चाहिए साथ ही यदि बीज के ऊपर बड़े मिट्टी के ढेर पड़ गये तो बीज के अंकुरण पर विपरीत असर पड़ता है और पौधों की संख्या कम हो जाती है बीज का अंकुरण करीब 10-15 दिन में होता है और इसी बीच में नींदा काफी निकल आता है इसलिए निंदा को पूर्व में ही नष्ट कर लेना चाहिए ।
रबी सीजन की फसल लेने के लिए यदि अंकुरण के लिए सिंचाई करना पड़े तो सिंचाई हल्की करें यदि संभव हो तो फव्वारा सिंचाई करें तो अच्छा होगा ऐसा करने से बीज अपने स्थान से नहीं हटेगा, अन्यथा बीज इधर उधर हो जाने से पौधों की दूरी में असमानता आ जायेगी । यदि कतारों में फसल बो रहे हैं तो कतार से कतार की दूरी 25-30 से.मी. रखना चाहिए ।
खाद व उर्वरक
अच्छी फसल प्राप्त करने के लिए खेत तैयार करते समय 15 – 20 टन गोबर का पचा हुआ खाद अच्छे से मिला लेना चाहिए बोनी के समय निम्नानुसार रासायनिक उर्वरक का भी उपयोग कर सकते हैं ।
नत्रजन – 25 कि.ग्रा. स्फुर-30 कि.ग्रा. पोटाश -30 कि.ग्रा. प्रति हे. देना चाहिए ।
पहली सिंचाई में 12.5 कि.ग्रा. नत्रजन की दूसरी मात्रा सिंचाई के समय देना चाहिए ।
निंदाई
बोनी के 20-25 दिन के बाद फसल की निंदाई करना चाहिए यदि बाद में आवश्यकता पड़े तो दूसरी निंदाई करावें । नीदानाशक दवा का प्रयोग कर नींदा नष्ट कर सकते हैं । आईसोप्रोटूरान 0.5 कि.ग्रा./हेक्टेयर, ग्लाइफोसेट 1.5 कि.ग्रा./हेक्टेयर या ट्राइफ्लुरेलिन 2 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर बोनी के पहले डालकर नींदा नियंत्रित कर सकत हैं ।
सिंचाई
खरीफ सीजन में कोई सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है रबी सीजन में 3 से 5 बार सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है ।
फसल की कटाई
अश्वगंधा की फसल 150 से 170 दिनों के कटाई के लिए तैयार हो जाती है इस समय इसकी पत्तियाँ पीली पड़ कर झड़ने लगती हैं तथा फल (बेरी) सूखने लगती है । इसी समय पौधों को जड़ सहित उखाड़ लेना चाहिए । यदि मिट्टी भारी हो अर्थात् जड़ ठीक से न निकल रही हो तो हल्का पानी लेकर उखाड़ लेना चाहिए ।
जड़ों का श्रेणीकरण एवं कटाई
खेत में जड़ों का उखाड़ने के बाद जड़ों के ऊपरी भाग को जिसमें की बेरी (फल) लगी है काटकर अलग कर दी जाती है । उखाड़ने के बाद जड़ों को ज्यादा समय तक पौधे में न लगी रहने दे नही तो जड़ों की गुणवत्ता कम हो जावेगी ।
इन जड़ों को सुखा कर तीन या चार श्रेणी में विभाजित करने पर अच्छा लाभ होता है ।
1.श्रेणी “ए” जड़ों की लंबाई 7 से.मी. व व्यास 1 से 1.5 से.मी. में जड़ें भारी एवं चमकदार सफेद रंग की होती हैं ।
2.श्रेणी “बी” इस श्रेणी की जड़ों की लम्बाई 5 से.मी. व्यास 1 से.मी. होता है जो कि ष्एष् श्रेणी की तुलना में कम सफेद होती हैं और ठोस भी कम होती हैं ।
3. श्रेणी “सी” इनकी लंबाई 3-4 से.मी. व व्यास 1 से कम होता है । जो पतली होती हैं ।
उपज
अश्वगंधा का मुख्य औषधी भाग जड़ है पत्ते व बीज भी दवा के काम आते हैं । 5-6 क्विंटल सूखी जड़ें प्रति हे. या 18-20 क्विंटल गीली जड़ें प्राप्त होती है एवं 50-60 किलो बीज भी प्राप्त होता है ।
स्रोत-
- जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर,मध्यप्रदेश