अलसी के रोग व कीट( Insects and diseases of Linseed )

अलसी की फसल भारत में अस्सी के दशक में लगभग 20 लाख हेक्टेयर में की जाती थी, परन्तु इसका क्षेत्रफल कम होकर अब सिर्फ लगभग 4 लाख हेक्टेयर रह गया है, जिसका लगभग 30 प्रतिशत क्षेत्र मध्य प्रदेश में है | देश में अलसी की वर्तमान उत्पादकता लगभग 650 किलो प्रति हेक्टेयर है जबकि मध्य प्रदेश में यह केवल 380 किलो प्रति हेक्टेयर है | देश व प्रदेश में कम उत्पादकता का एक प्रमुख कारण इस फसल में लगने वाली बीमारियाँ व कीटों से होने वाली हानि है जिसके प्रति अलसी उगने वाले किसान अनभिग्य व उदासीन है, अलसी की फसल को विभिन्न प्रकार की बीमारियाँ एवं लगभग बीस प्रकार की कीट विभिन्न अवस्था में हानि पहुँचाते है |

 

(अ) अलसी के रोग ( Diseases of Linseed ) 

१. गेरुआ

अलसी का यह सबसे महत्वपूर्ण रोग है | इस रोग से उपज के साथ साथ तेल की मात्रा में भी कमी होती है | गेरुआ रोग का प्रकोप जनवरी के अंतिम सप्ताह से शुरू हो सकता है | फरवरी माह में फैलाव दिखाई देने लगता है | पत्तियों पर चमकदार नारंगी रंग के गोलाकार, लम्बवत धब्बे दिखाते है | उग्र अवस्था में तनो पर भी दिखते है | पत्तियाँ सूखकर गिर जाती है | मैलेम्पसौरा लाईनाई फफूंद से उत्पन्न होता है | रोग नियंत्रण हेतु फरवरी माह के प्रथम सप्ताह में घुलनशील गंधक 0.2 प्रतिशत का अथवा सल्फेक्स 0.05 प्रतिशत या डायथेन एम – 45 का 0.25 प्रतिशत घोल का खड़ी फसल में छिडकाव करें | जंगली अलसी के पौधों को खेत के आसपास से नष्ट कर दें | रोगनिरोधी किस्म जवाहर -23, जवाहर – 552 किरण उपयोग में लायें |

 

२. उकता रोग 

फसल की किसी भी अवस्था में रोग उत्पन्न हो सकता है | पौधे मुरझाकर सूख जाते है | पौधा उखाड़कर देखने से मुख्य जड़ पर कला रंग भदरंगा भाग, लम्बी धारियाँ दिखाई देती है | यह फ्यूजेरियम अक्सीस्पोरम लाईनाइ द्वारा उत्पन्न होता है फसल कटने के बाद में डूठ अगले वर्ष रोग उत्पन्न करते है | बुआई के पूर्व बीज को थाइरम 3 ग्राम / किलो बीज या वेविस्टीन 2 ग्राम + थाइरम 2 ग्राम की बराबर बराबर मात्रा प्रति किलो बीज से बीजोपचार करें | लगातार एक खेत में अलसी न लें फसल चक्र अपनाये, अलसी एवं चना 3:9 अन्तवर्ती फसलों में लगायें |

 

३. भभूतिया या पाउडरी मिल्ड्यू रोग

यह रोग देर से बोई गई फसल में सबसे पहले पौधों की निचली पुरानी पत्तियों पर सफ़ेद चकते दिखाई देते है और 15 – 20 दिन बाद पूरी फसल पर सफ़ेद पाउडरी बिखरा हुआ दिखाई देता है | रोग आइडियम लाईनाइ नामक फफूंद से उत्पन्न होता है | रोग नियंत्रण के लिये घुलनशील गंधक 0.2 प्रतिशत का छिडकाव करें | रोगरोधी किस्मे जवाहर – 23, किरण, आर 550 का उपयोग करें |

 

४. आल्टरनेरिया लीफस्पाट

इस रोग के कारण पत्तियों पर गोलाकार या अंडाकार भूरे काले रंग के धब्बे उत्पन्न होते है एवं फूलो के अंगों पर भी धब्बे उत्पन्न होते है | जिससे काफी नुकसान होता है | दाने नहीं बन पाते है | डायथेन एम -45 का 0.25 प्रतिशत, रोबराल (आइप्रोटूआन) 0.2 प्रतिशत का 2-3  बार छिडकाव करें |

 

(ब) अलसी में कीट( Insects of Linseed )

अलसी की कली में मक्खी सबसे अधिक हानि पहुँचाने वाला कीट है और यह उत्पादकता में सबसे अधिक प्रभाव डालता है | इसके अतिरिक्त कटुआ इल्ली वायर वार्म व अलसी की इल्ली भी कभी कभी इस फसल को आंशिक हानि पहुंचा सकते है |

अलसी की मक्खी का प्रकोप फूल की कलियाँ आने पर आरम्भ होता है | जहाँ मादा मक्खी कलियों के केलिक्स के नीचे 3-90 के समूह में अंडे देती है, इन अंडो से 2 दिन के अंदर इल्लियाँ निकल आती है, और फूल के आवश्यक भाग को नष्ट कर देती है, बाहर से ग्रसित कलियों में ग्रसित होने का कोई विशेष लक्षण नहीं दिखाई देता है |

सिर्फ पंखुड़ियों के ऊपरी भाग को ध्यान से देखने पर उसमे कुछ विकृति दिखाई देती है कली की मक्खी के कारण कलियाँ नहीं खिलती तथा घेंटी नहीं बनती है, इस कीट की इल्लियाँ हानि पहुँचाने के समय कलियों के अंदर ही रहती है इस कारण किसान भाई इसके प्रकोप को समय रहते नहीं पहचान पाते और उन्हें फसल पकने पर ही अनलिखी सूखी कलियाँ दिखती है इस स्तिथि में वे यह कहकर कि फसल लोगिया गई व इसे एक प्रकृतिक क्रिया मान लेते है |

मक्खी का प्रकोप दिसम्बर के प्रथम सप्ताह में आरम्भ ही जाता है अप्रेल तक चलता है, मादा मक्खी अच्छी धूप की स्तिथि में दिन में 11 से 3 के बीच अंडे देती है | एक मादा अपने जीवनकाल में 8 से 17 कलियों में 22 से 105 तक अंडे देती है, अंडो से इल्लियाँ निकलती है और ये चार अवस्थाये 5 से 14 दिन में पूर्ण कर लेती है प्रथम तीन अवस्था में इल्लियाँ पारदर्शी व दुधिया रंग की रहती है जबकि पूर्ण विकसित इल्ली गुलाबी रंग में परिवर्तित हो जाती है, पूर्ण विकसित इल्ली कलियों से बाहर निकलकर भूमि में गिर जाती है तथा भूमि के 5 से 7 से. मी. नीचे ककून बनाकर उसके अंदर शंखी में परिवर्तित हो जाती है, जिसमे से 5 से 11 दिन बाद मक्खी निकल आती है |

मार्च के मध्य के बाद बनी शंखिया सुशुप्ता अवस्था में चली जाती है व उनमे मक्खियाँ अगले मौसम में ही निकलती है यह कीट केवल अलसी को ही ग्रसित करता है, इस कीट के प्रकोप से प्रदेश में 13 से 75 प्रतिशत तक कलियाँ ग्रसित पायी गयी है | इस कीट से एक प्रतिशत कलियों पर प्रकोप अधिक होने पर लगभग 26 किलो उपज की हानि प्रति हेक्टेयर होती है |

इस कीट के पांच परजीवी भी है इनमे से एक जो सिस्टेसिस डेसिन्यूरी नाम से जाना जाता है अधिक सक्रीय रहता है परन्तु इसकी सक्रीयता फरवरी से तापक्रम बढ़ने पर ही आरम्भ होती है इस कारण इसका प्राक्रतिक नियंत्रण के रूप में कम ही लाभ मिल पता |

इस कीट के प्रबंधन में फसल के जल्दी बुआई का प्रमुख योगदान रहता है | अक्टूबर के तीसरे सप्ताह तक बुआई करने पर फसल में फूल दिसम्बर माह के पूर्व में ही आ जाते है | इस समय तक इस कीट की शंखी सुशुप्ता अवस्था से मक्खी में परिवर्तित नहीं हो पति है इस लिए इस मक्खी का प्रकोप कम होता है | देर से लगाई गई तथा देर से पकने वाली जातियों में कलियों तथा फूलो वाली अवस्था के समय यह कीट सक्रीय रहता है तथा अधिक कलियों को ग्रसित करता है इसलिए इस कीट के प्रबंधन का एक सरल उपाय है कि आप फसल की बुआई अक्टूबर के तीसरे सप्ताह तक कर ले |

अलसी की जल्दी पकने वाली जातियों में देर से पकने वाली जातियों की अपेक्षा प्रकोप कम होता है | उन जातियों में जिनमे कलि / फूल वाली अवस्था कम दिनों तक रहती है में भी कली की मक्खी का प्रकोप कम होता है जिन जातियों में इस कीट का प्रकोप कम होता है उनमे जवाहर -1, जे. एस. 27 आर. 552 है |

सारणी – बुआई के समय का अलसी की मक्खी के प्रकोप का प्रभाव

बोनी का दिनांक जातियों के ग्रसित कलियों का प्रतिशत
जवाहर -23 आर 552 एस एस 2 स्थानीय औसत
1 अक्टूबर
11 अक्टूबर
21 अक्टूबर
31 अक्टूबर
10 नवम्बर
20 नवम्बर
औसत
15.3
17.0
12.2
18.9
36.3
45.6
24.2
20.2
29.0
14.0
17.9
30.6
44.7
24.7
19.2
15.9
13.6
17.8
32.8
40.8
23
19.5
16.9
15.6
20.5
49.3
42.3
27.2
16.6
17.5
13.9
18.8
37.3
43.0

 

यदि आपने फसल की बुआई देर से की है या देर से पकने वाली जाति लगाई है तो इस कीट के प्रकोप की हमेशा सम्भावना बनी रहती है इस अवस्था में आपको कीटनाशक का उपयोग करना आवश्यक हो जाता है, परन्तु कीटनाशक के चुनाव से अधिक महत्वपूर्ण कीटनाशक का कलियाँ लगने के आरम्भ होते ही छिडकाव करना है, दूसरा व तीसरा छिडकाव 15 -15 दिन के अन्तराल में करना चाहिए, पिछले तीन दशको में विभिन्न कीटशास्त्रियों द्वारा सबसे अधिक प्रभावशाली कीटनाशक फासफोमिडान पाया गया है, इसकी 225 मिली लीटर सक्रीय मात्रा प्रति हेक्टेयर के मान से छिडकाव करना चाहिए इसके लिये बाजार में उपलब्ध फासफोमिडान 40 एस एल की 600 मि. ली. को 700 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर के मान से नेपसेक स्प्रेयर से छिडकाव करें |

कटुआ इल्ली तथा वायर वार्म दोनों ही भूमि के अंदर रहते है | कटुआ इल्ली भूमि की सतह से पौधों को काट कर हानि पहुँचाती है जिससे पौधों की संख्या कम हो जाती है तथा उपज पर विपरीत प्रभाव पड़ता है | वायर वार्म की इल्लियाँ भूमि के अंदर तने तथा जड़ वाले भाग की छाल को खाती है जिससे पौधे पीले पड़ जाते है तथा उनमे फूल व घेन्टियाँ कम लगती है |

जिन क्षेत्रो में कटुआ इल्ली तथा वायर वार्म का प्रकोप होता है व अंतिम जुताई के समय क्लोरोपायरीफास 5 प्रतिशत चूर्ण का भुरकाव 25 किलो प्रति हेक्टेयर के मान से करना चाहिए |

 

Source-

  • Jawaharlal Nehru Krishi VishwaVidyalaya, Jabalpur ( M.P.)
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