अलसी की खेती ( Package of practice of Linseed )-मध्यप्रदेश

अलसी रबी मौसम में उगायी जाने वाली एक महत्वपूर्ण तिलहनी फसल हैं। प्रायः असिंचित दशा में इसकी का काश्त की जाती हैं। किंतु जिन क्षेत्रों में सिंचाई की सुविधा है वहां एक दो सिंचाई करके अच्छी उपज प्राप्त कर सकते हैं। अलसी के बीजों में औसतन 30-43 प्रतिशत तेल एवं 22 प्रतिशत प्रोटीन होता हैं। भारत में इसकी खेती 353 हजार हैक्टेयर क्षेत्र में की जाती है जिससे 145 हजार टन उत्पादन प्राप्त होता है तथा इसकी औसत उपज 412 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर है। मध्यप्रदेश में अलसी को 120 हजार हैक्टेयर क्षेत्र में उगाया जाता है जिससे 38 हजार टन उत्पादन प्राप्त होता है तथा प्रदेश में इसकी औसत उपज 311 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर है। प्रदेश में सागर, दमोह, टीकमगढ़, बालाघाट एवं सिवनी अलसी के प्रमुख उत्पादक जिले हैं। प्रदेश में अलसी की खेती विभिन्न परिस्थितियों में जैसे असिंचित, वर्षा आधारित एवं कम उपजाऊ भूमि पर की जाती हैं। अलसी को शुद्ध फसल, मिश्रित फसल, सह फसल, पैरा व उतेरा फसल के रूप में उगाया जाता हैं। अलसी की कास्त यदि उन्नत कृषि कार्यमाला अपनाकर की जाये तो उपज में लगभग 2 से 2.5 गुना वृद्धि की संभावना हैं। प्रदेश में अलसी की कम उपज प्राप्त होने के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:-

  1. कम उपजाऊ भूमि पर खेती करना।
  2. वर्षा आधारित क्षेत्रों में खेती करना।
  3. उतेरा पद्धति से खेती करना।
  4. कम उपज देने वाली स्थानीय किस्मों की बोनी करना।
  5. क्षेत्र विशेष के लिये अधिक उपज देने वाली अनुशंसित किस्मों का अभाव।
  6. पर्याप्त मात्रा में उन्नतशील किस्मों के बीज का अभाव।
  7. असंतुलित एवं कम मात्रा में उर्वरकों का उपयोग।
  8. पौध संरक्षण के उपायों को न अपनाना।

भूमि का चुनाव(Land selection for Linseed)

अलसी की खेती खराब जल निकास वाली भूमि को छाड़ सभी प्रकार की भूमि में की जा सकती हैं। मध्यम से भारी भूमि में अलसी के पौधों की बढवार अच्छी होती हैं। जिन क्षेत्रों में वर्षा कम होती है तथा भूमि बालुई हो, उन क्षेत्रों में अलसी की खेती करना लाभदायक नही होता।

 

भूमि की तैयारी(Land preparation for growing Linseed)

अलसी के बीज चपटे तथा छोटे आकार के होते हैं। अतः इसको मुलायम तथा भुरभुरी बीज षैया की अवश्यकता होती हैं। खरीफ मौसम में बोयी गयी फसल की कटाई के बाद अथवा पड़ती छोड़े गए खेतों की भूमि की दशा भू-परिष्करण के लिए उपयुक्त होने पर दो बार कल्टीवेयर से जुताई करने के बाद दो बार बखरनी करके मिट्टी को भुरभुरा करें। बखरनी के बाद पाटा चलाकर खेत को समतल करें ताकि, भूमि में नमी संरक्षित रह सकें। यदि अलसी की खेती कास्त उतेरा फसल के रूप में कर रहे हो तो भूमि को तैयार करने की जरूरत नही होती।

 

उतेरा खेती

अलसी की उतेरा खेती पद्धति धान उगाये जाने वाले क्षेत्रों में प्रचलित हैं जहां, अधिक नमी के कारण भ-परिष्करण कार्यो में कठिनाई आती हैं। अतः नमी का सदुपयोग करने एवं फसल सघनता दुगनी करने हेतु धान के खेत में अलसी बोई जाती हैं। इस पद्धति में धान की खड़ी फसल में (फूल अवस्था के बाद) अलसी के बीज को छिटका दिया जाता हैं। फलस्वरूप धान की कटाई पूर्व ही अलसी का अंकुरण हो जाता हैं। भूमि में संचित नमी से ही अलसी की फसल पककर तैयार की जाती हैं। अलसी की इस विधि को पैरा/उतेरा पद्धति कहते हैं।

 

बोनी प्रबंधन

बोनी प्रबंधन के अंतर्गत आने वाले सभी कार्य तथा उन्नत किस्मों का चयन, बोनी का समय, बीजदर, बोने की विधि तथा गहराई आदि का निर्धारण भूमि, जलवायु, खेती की प्रकृति तथा सिंचाई और उपलब्ध संसाधनों के आधार पर किया जाता हैं।

उन्न्त किस्मों का चयन(Linseed varieties)

बोनी हेतु किस्मों का चुनाव निम्नानुसार करना चाहिए।

(अ) असिंचित (बारानी) खेती के लिये

1.जवाहर 17

यह किस्म लगभग 115-120 दिनों में पककर तैयार होती हैं। इसके पौधे सीधे एवं मध्यम उँचाई (50 से.मी.) के अधिक शाखा वाले होते हैं तथा इसके फूलों का रंग नीला होता हैं। 1000 दानों का वजन 7 ग्राम तथा औसत उपज 8 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती हैं। यह किस्म गेरूआँ रोग के प्रति प्रतिरोधी है।

2. किरण

यह किस्म लगभग 120 दिनों में पककर तैयार होती हैं। इसके पौधे झाड़ीनुमा गसे हुये सीधे मध्यम उँचाई (55 से.मी.) के तथा बहुशाखी होते हैं। फलों का रंग नीला तथा दानें बादामी रंग के होते हैं। यह किस्म दहियाँ, गेरूआ और उकठा रोगों के प्रति अधिक प्रतिरोधक क्षमता वाली तथा इसकी औसत उपज 8 क्विंटल/हेक्टेयर हैं।

जे.एल.टी.26 – नीले फूल वाली किस्म जो कि टीकमगढ़ केन्द्र से विकसित की गई है तथा सिंचित एवं असिंचित दोनों अवस्थाओं हेतु उपयुक्त हैं। यह किस्म लगभग 118 दिनों में पककर तैयार होती है। इसके दानों में तेल की मात्रा 40.99 प्रतिशत एवं 1000 दानों का वजन 6.8 ग्राम होता है। इसमे अलसी की मक्खी का प्रकोप कम होता हैं। पाऊडरी मिल्डयू, गेरूआ एवं उकठा रोगों के प्रति प्रतिरोधी हैं। असिंचित अवस्था में इसकी 8 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज प्राप्त होती हैं।

 

(ब) सिंचित खेती के लिये

1.जवाहर 23 

इस किस्म के फूल सफेद, बीज मध्यम आकार के बादामी चमकीले रंग के होते हैं। दहियाँ एवं उकठा रोग के लिये प्रतिरोधी किस्म जो कि लगभग 120-125 दिनों में पकती हैं। सिंचित दशा में इसकी औसत उपज 15 से 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती हैं।

2.जवाहर 9

इस किस्म के पौधे मध्यम उँचाई (50 से.मी.) के 3 से 5 शाखा वाले होते हैं। फूल सफेद तथा बीज हल्के बादामी एवं बड़े आकार के होते हैं। यह किस्म दहियां, उकठा तथा भभूतियाँ रोगों के लिये प्रतिरोधी तथा अलसी की मक्खी के प्रति सहनशील हैं। यह लगभग 115-120 दिनों में पकती है तथा इसकी औसत उपज 11-13 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती हैं।

(स) उतेरा खेती के लिये

1. जवाहर 7

इस किस्म के पौधे सीधे एवं मध्यम ऊँचाई (45 से.मी.) के होते हैं। इसके फूल नीले तथा बीज बड़े एवं हल्के बादामी रंग के होते हैं। गेरूआँ प्रतिरोधी किस्म हैं। इसके 1000 दानों का वजन 7.8 ग्राम होता हैं। यह किस्म लगभग 115 दिनों में पक जाती हैं तथा इसकी औसत उपज 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हैं।

2. जवाहर 552

इस किस्म के पौधे पतले तने वाले मध्यम ऊँचाई के तथा बहुशाखीय होते हैं। फूलों का रंग नीला तथा बीज मध्यम बड़े एवं बादामी रंग के होते हैं। इसके 1000 दानों का वजन 6.8 ग्राम होता हैं। इसकी औसत उपज 9 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है तथा यह लगभग 115 से 118 दिनों में पककर तैयार होती हैं।

बोनी का समय(Sowing time)

(अ) असिंचित (बारानी) खेती के लिये- अक्टूबर के प्रथम सप्ताह से अंतिम सप्ताह तक।

(ब) सिंचित खेती के लिये – नवम्बर के प्रथम सप्ताह से द्वितीय सप्ताह तक।

(स) उतेरा खेती के लिये – धान काटने के 15 दिन पहले। जल्दी बोनी करने पर अलसी की फसल को फली की मक्खी एवं पाउडरी मिल्डयू रोग आदि के प्रकोप से बचाया जा सकता हैं।

बीज की मात्रा

(अ) बारानी खेती के लिये    –     25 किलोग्राम/हेक्टेयर (कतारों में बोनी)।

30 किलोग्राम/हेक्टेयर (छिड़काव बोनी)।

(ब) सिंचित खेती के लिये    –     25 किलोग्राम/हेक्टेयर (कतारों में बोनी)।

(स) उतेरा खेती के लिये            –     30 किलोग्राम/हेक्टेयर (धान की खड़ी फसल में छिड़काव)।

बीजोपचार, कतारों की दूरी एवं बीज की गहराई

बोनी के पूर्व बीज को कार्बेन्डाजिम या टापसिन एम अथवा थीरम 2.5 ग्राम दवा प्रति किलो ग्राम बीज के हिसाब से बीजोपचार अवष्य करें।

बोनी करते समय कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. तथा कतार के अंदर पौधे से पौधे की दूरी 5 से 7 से.मी. के बीच होनी चाहिये। बीज को 3-4 से.मी. की गहराई पर बोना चाहिये।

खाद एवं उर्वरक प्रबंधन

अलसी की फसल में खाद एवं संतुलित उर्वरक का उपयोग करने के लिये मिट्टी परीक्षण करना चाहिए। सामान्य तौर पर उर्वरक की मात्रा, भूमि की किस्म, अलसी की बोयी गयी किस्म एवं खेती की पद्धति के अनुसार निम्न प्रकार से देना लाभप्रद होगा।

विवरण रासायनिक उर्वरकों की मात्रा (किलोग्राम/हेक्टेयर)
नत्रजन स्फुर पोटाश
अ. असिंचित खेती की दशा में 30 20 10
ब. सिंचित खेती की दशा मे

1. हल्की भूमि

2. मध्यम से भारी भूमि

 

 

 

60

75

 

 

 

40

50

 

 

20

25

स. उतेरा खेती की दशा में 20 20

 

इन अनुशंसित रासायनिक उर्वरक के अलावा 5 टन गोबर या कम्पोस्ट खाद प्रति हेक्टेयर के मान से देने से उपज में भारी वृद्धि होती है तथा भूमि की उत्पादकता बनी रहती हैं। जिन क्षेत्रों में गंधक तथा जस्ता तत्व की कमी हो वहाँ जिंक सल्फेट 25 किलोग्राम/हेक्टेयर के मान से बोनी के समय देना लाभकारी होता हैं।

खाद एवं उर्वरक देने का समय एवं तरीका

  1. गोबर/कम्पोस्ट/केचुआ खाद को अंतिम बखरनी के पहले जमीन में समान रूप से खेत में फैलाकर बखरनी द्वारा मिट्टी में अच्छी तरह मिलाना चाहिये।
  2. असिंचित खेती की दशा में सभी उर्वरको की पूरी मात्रा बावाई के समय बीज से 2-3 से.मी. नीचे दुफन या फर्टीसीडड्रील की सहायता से देना चाहिये। बोनी करने के बाद 40 से 80 दिन के बीच यदि पर्याप्त वर्षा हो तो 20-25 किलो ग्राम नत्रजन प्रति हेक्टेयर की दर से खड़ी फसल में दोपहर के समय देना चाहिये।
  3. सिंचित दशा में बोनी के समय नत्रजन की आधी, स्फुर एवं पोटाष की पूरी मात्रा एक साथ मिलाकर कूँडो में बीज से 2-3 से.मी. नीचे देना चाहिये। शेष नेत्रजन की बची आधी मात्रा को दो बराबर भागों में क्रमशः पहली सिंचाई (बोनी के 30-40 दिन बाद) एवं दूसरी सिंचाई (बोनी के 75-80 दिन बाद) के बाद खड़ी फसल में दोपहर के समय छिड़ककर देना चाहिये।
  4. उतेरा फसल पद्धति में नत्रजन की आधी मात्रा (10 किलोग्राम) धान की कटाई के 5 दिन पूर्व छिड़ककर देना चाहिये। तथा आधी बची मात्रा बोनी के 40 दिन बाद छिड़ककर देना चाहिये। स्फुर की सम्पूर्ण मात्रा (20 किलोग्राम) धान की फसल हेतु अनषांसित स्फुर की मात्रा के अलावा मचैआ करते समय देना चाहिये तथा अलसी की बानी करते समय बीजों को स्फुर घुलनशील होकर पौधों को उपलब्ध हो सकें।
  5. यदि जिंकसल्फेट दे रहें हो तो बोनी के समय अन्य उर्वराकों के साथ मिलाकर देना चाहिये।

जल प्रबंधन

अलसी की खेती असिंचित अवस्था में भूमि में संरक्षित नमी के आधार पर की जाती हैं। जिन क्षेत्रों में सिंचाई की पर्याप्त सुविधा उपलब्ध हो वहाँ सिंचाई जल की सही मात्रा सही समय पर सिंचाई देना तथा सिंचाई की योग्य विधि अपनाकर अधिक उपज एवं लाभ प्राप्त किया जा सकता हैं।

सिंचाई का समय

फसल की सिंचाई कब करना है इसका निर्धारण भूमि की किस्म, सिंचाई जल की उपलब्ध्ता तथा सिंचाई हेतु फसल की क्रान्तिक अवस्थायें आदि पर निर्भर करता हैं। हल्की भूमि में 2-3 सिंचाई की अवश्यकता होती है जबकि भारी भूमि में 1 या 2 बार फसल को सिंचाई करने की अवश्यकता होती है। भूमि की किस्म एवं जल की उपलब्ध्ता के आधार पर अलसी फसल में सिंचाई का निर्धारण निम्नानुसार करना चाहिये।

भूमि का किस्म सिंचाई की उपलब्धता बोनी के दिनों बाद सिंचाई के लिये अनुशंसित क्रान्तिक अवस्थायें
काली एक सिंचाई 40 शाखायें निकलने की अवस्था
मध्यम दो सिंचाई 40 एवं 80 शाखायें निकलने एवं पुष्पन अवस्था
हल्की तीन सिंचाई 20,40 एवं 80 सीड लिंग अवस्था, शाखायें निकलने की अवस्था एवं पुष्पन अवस्था

 

सिंचाई विधि

1 ऊँची नीची समतल भूमि में फुहार विधि से सिंचाई करने से पानी का सदुपयोग होता हैं। फूल आते समय इस विधि से सिंचाई न करें क्योंकि, फूल नष्ट होने का खतरा होता हैं। अतः इस अवस्था में किसी अन्य विधि से सिंचाई करना चाहिये।

2 काली, दोमट मिट्टी होने की स्थिति में सीमांत पट्टी विधि से सिंचाई करना अधिक लाभकारी होता है। इस विधि में खेत को ढलान की दिषा में पट्टियों में विभाजित कर हर पट्टी का 90 प्रतिशत भाग सिंचित होने के बाद पानी देना बंद कर देते हैं क्योंकि पट्टी के अंदर भरे हुये पानी से पट्टी का शेष भाग सिंचित हो जाता हैं।

3 हल्की किस्म की भूमि में क्यारी विधि अपनाना अच्छा होता हैं। इस विधि में खेत को सबसे पहले 5 से 6 मीटर चैड़ी पट्टीयों में विभाजित कर लेते है। ताकि बाद में पट्टीयों के विपरीत दिषा में 5 से 6 मीटर के अंतराल पर मेढ़ बना देते हैं ताकि 5 ग 5 मीटर या 6 ग 6 मीटर की आकार की क्यारियाँ खेत में बन जावें। तत्पश्चात दो कतारों की आमने सामने की क्यारियों के बीचोंबीच नाली बनाकर खेत में ऊँचे भाग से सिंचाई प्रारंभ करते हैं। ध्यान रहे कि जिस कयारी में सिंचाई हो जाये उसमें दोबारा सिंचाई का पानी नही जाये।

सिंचाई जल की मात्रा एवं जल निकास

अंकुरण हेतु पहली सिंचाई में जल की मात्रा (5 हेक्टेयर से.मी.) देना चाहिये। बाद में सिंचाई जल की मात्रा में बढोतरी (6 से 7.5 हेक्टेयर से.मी.) करना चाहिये।

खेत में सिंचाई का अतिरक्ति जल अधिक समय तक भरा नही रहना चाहिये। जो खेत समतल न हो या भूमि भारी किस्म की हो, इस दशा में खेत में 15-20 मीटर के अंतराल पर जलनिकास हेतु नाली बनाना फायदेमन्द होता हैं।

निंदाई-गुडाई

सामान्य तौर से असिंचित अलसी की फसल में नींदा की समस्या नही होती। जिन क्षेत्रों में अलसी की काष्त, सिंचित अवस्था में की जाती है वहाँ चैड़ी पत्तीवाले नींदा जैसे बथुआ, सेंजी, कृष्णनील, फुलनी व मैना-मैनी आदि की समस्या अधिक होती हैं। अतः ऐसी स्थिति में अलसी की फसल में सही समय पर और सही विधि से नींदा नियंत्रण करना फायदेमन्द होता है। अलसी की फसल की बोनी के 30 से 45 दिनों के बीच नींदा के प्रति ज्यादा संवेदनशील होती है । अतः जिन क्षेत्रो में मजदूर आसानी से उपलब्ध हो तथा मजदूरी भी कम हो, वहां बोनी के 20 तथा 40 दिन बाद हाथ से दो बार निंदाई करना चाहिये अथवा रासायनिक नियंत्रण करने हेतु पेण्डीमिथलीन नामक नींदानाशक 1 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर सक्रिय तत्व का 500-600 लीटर पानी में घोल बनाकर बोनी के तुरंत बाद किन्तु अंकुरण पूर्व भूमि में छिड़काव करना चाहिये। ध्यान रहे कि नींदानाशक का छिड़काव करते समय भूमि में नमी का होना अत्यंत आवष्यक होता हैं। मध्यप्रदेश के कई जिलों में अलसी में अमरबेल की समस्या अधिक गम्भीर होती है। अतः अमरबेल की समस्या होने की दशा में पेण्डीमिथलीन 1 किलो प्रति हेक्टेयर सक्रिय तत्व बोनी के 15-20 दिनों के बाद 500-600 लीटर पानी में घोल बनाकर खड़ी फसल में छिड़काव करना चाहिये। नींदानाशक का छिड़काव करते समय स्प्रेयर में फ्लेटफेन या फ्लेट जेट नोजल का उपयोग करना चाहिए।

पौध संरक्षण

अलसी की फसल में लगने वाली बीमारियाँ तथा उनको नियंत्रण करने के उपाय निम्नानुसार हैं।

 1.उकठा रोग

यह अत्यंत हानिकारक रोग है जो खेत की मिट्टी में रोग ग्रस्त पौधों के ठूठ से फैलता है। इस रोग का प्रकोप फसल के अंकुरण से लेकर पकने की अवस्था तक कभी भी हो सकता हैं। पौधा रोगग्रस्त होने पर पत्तियों के किनारे अंदर की और मुड़कर मुरझा जाते हैं । उकठा रोग के नियंत्रण के लिये बीज को कार्बेन्डाजिम (बाविस्टीन) 1.5 ग्राम दवा प्रति किलो बीज की दर से बोनी के पूर्व बीजोपचार करना चाहिये तथा फसल-चक्र अपनाना चाहियें।

2.गेरूआ रोग

इस रोग का प्रकोप फसल के अंकुरण से लेकर पकने की अवस्था तक कभी भी हो सकता हैं। गेरूआँ रोग के नियंत्रण के लिये कार्बेन्डाजिम (बाविस्टीन) 1.5 ग्राम दवा प्रति किलो बीज की दर से बोनी के पूर्व बीजोपचार करें तथा 2 या 3 वर्ष का फसल चक्र अपनायें।

3.भभूतियाँ रोग

इस रोग के कारण पत्तियों पर सफेद चूर्ण जम जाता हैं। रोग की तीव्रता अधिक हो जाने पर दाने सिकुड़ जाते है तथा आकार छोटा हो जाता हैं। देर से बुवाई करने पर षीतकालीन वर्षा होने पर अधिक समय पर आर्द्र बनी रहने पर इस रोग का प्रकोप बढ जाता हैं। इस रोग के नियंत्रण के लिये केराथेन 2 ग्राम प्रति लीटर अथवा घुलनशील गंधक 2.5 ग्राम दवा प्रति लीटर अथवा बाविस्टीन 2 ग्राम प्रति लीटर अथवा घुलनशील गंधक 2.5 ग्राम दवा प्रति लीटर अथवा बाविस्टीन 1 ग्राम दवा प्रति लीटर पानी के हिसाब से 15 दिन के अंतराल पर दो बार छिड़काव करें।

4.आल्टरनेरिया ब्लाईट

इस रोग के आक्रमण से घेंटियों एवं डंठल के बीच काले भूरे धब्बे बन जाते हैं। जिससे कली नही खिलती  एवं ऐंठ जाती हैं। इसके नियंत्रण के लिये डायथेन एम-45, 2.5 ग्राम दवा प्रति लीटर के हिसाब से धेटियाँ बनने की अवस्था पर 15 दिनों के अंतराल पर दो बार छिड़काव करें।

कीट

1.अलसी की मक्खी

इस कीट का आक्रमण देर से बोई गई फसल में कली अवस्था में अधिक देखा गया हैं। मक्खी छोटे आकार की गुलाबी रंग की होती हैं। इसकी रोकथाम के लिये

  1. बोनी समय पर करें एवं अवरोधी किस्म लगायें।
  2. प्रकाश प्रपंच का उपयोग करें। कीट रात्रि में प्रकाश की ओर आकर्षित होते हैं। रोज सुबह इसको इकट्ठा कर नष्ट करें।
  3. एक किलोग्राम गुड को 75 लीटर पानी में घोलकर मिट्टी के बर्तनों में कई स्थानों पर रखें। इस कीट के प्रौढ़ के घोल की ओर आकर्षित होते हैं।
  4. कीट की संख्या अधिक होने पर फास्फोमिडान 85 एस.एल. 300 मि.ली. की दर से 500 लीटर पानी/हे. के हिसाब से प्रथम छिड़काव इल्लियों के प्रकोप प्रारम्भ होने पर तथा दूसरा 15 दिन बाद करें। यदि अवश्यकता हुई तो तीसरा छिड़काव 15 दिन बाद पुनः करना चाहिए।

2.अलसी की इल्ली

प्रौढ़ कीट मध्यम आकार का गहरे भूरे रंग का या घूसर रंग का होता हैं। अगले पंख गहरे घूसर रंग के पीले धब्बे से युक्त होते हैं तथा पिछले पंख सफेद चमकीले अर्धपार दर्षक होकर बाहरी सतह घूसर रंग की होती है इल्लियाँ लम्बी भूरे रंग की होती हैं।

ये कीट अधिकतर पत्तियो की बाहर की सतह को खाते हैं इस कीट की इल्ल्यिाँ तने के ऊपरी भाग में पत्तियों को चिपका कर खाती रहती हैं। इस कारण कीट से ग्रसित पौधों की बाढ़ रूक जाती है इस कीट की 92 प्रतिशत इल्लियाँ मरर्तिर इंडिका नामक मित्र कीट के परजीवी युक्त होती हैं तथा बाद में ये मर जाती हैं।

3.अर्द्ध कुण्डलक इल्ली

इस कीट के प्रौढ़ षलभ (पतंगा) के अगले पंखो पर सुनहरे धब्बे रहते हैं इल्लियाँ हरे रंग की होती हैं। इल्लियों को खाती है बाद में फल्लियों को भी इस कीट की इल्लियाँ नुकसान पहुंचाती हैं।

4.चने की इल्ली

इस कीट के प्रौढ़ भूरे रंग के होते हैं तथा अगले पंखो में सेम के बीज के समान काला धब्बा रहता है। इल्लियों के रंग में विविधता पाई जाती है। जैसे पीले, हरे, गुलाबी, नारंगी, भरे या काली आदि। शरीर के किनारों पर इल्लियों में हल्की एवं गहरी धारियाँ होती हैं। छोटी इल्लियाँ पौधे के हरे पदार्थो को खुरचकर खाती हैं। बड़ी इल्लियाँ कलियों, फूलों एवं फल्लियों को नुकसान पहुंचाती हैं। इल्लियाँ फल्लियों में छेदकर अपना सिर अंदर घुसाकर दानों को खाती हैं। इल्ली अपने जीवन काल में 30-40 फल्लियों को नुकसान पहुंचाती हैं।

नियंत्रण
  1. फेरोमेन प्रपंचो का उपयोग करें। प्रपंच से एकत्र हुये कीड़ो को नष्ट करें।
  2. क्लोरोपायरीफास 20 ई.सी. दवा की 750 से 1000 मि.ली. मात्रा प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 500 लीटर पानी प्रति हे. की दर से छिड़काव करें।
  3. खेत में प्रकाश प्रपंच कर उपयोग करें। प्रपंच से एकत्र हुये कीड़ों को नष्ट करें।
  4. न्यूक्लियर पाली हेड्रोसिंस विषाणु 250 इल्लियों का पाउडर बनाकर 500 लीटर पानी/हे. की दर से छिड़काव करें।
  5. कीट संख्या अधिक होने पर मोनोक्रोटोफास 36 ई.सी. दवा की 750 मिलीलीटर मात्रा को 500 प्रतिशत चूर्ण का 20 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़काव करें।

कटाई एवं गहाई

जब अलसी के पौधों की पत्तियाँ सूख जाये, बोंडियाँ भूरी पड़ जाये एवं दाने चमकीले हो जाये ंतब फसल को हसियाँ से कटाई करने के बाद गठ्ठे बांध लेना चाहिये, क्योंकि गर्मी के मौसम में तेज हवा से कटी हुई फसल को उड़कर बिखरने की सम्भावना होती हैं। गठ्ठों को बैलगाड़ी या टेªक्टर ट्राली में रखकर खलिहान में इकटठा करने के बाद थ्रेसर या बैलों की सहायता से गहाई करना चाहिये तथा इसके बाद उड़ावनी कर दानों को धूप में अच्छी तरह सुखा लेना चाहिये।

उपज

सिंचित दशा में अलसी की वैज्ञानिक ढंग से खेती कर लगभग 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज आसानी से प्राप्त की जा सकती हैं। असिंचित दशा में लगभग 8 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती हैं।

उपयुक्त फसल चक्र

  1. एक फसली फसल चक्र (असिंचित क्षेत्रों में) खरीफ पड़ती के बाद गेहूँ/चना/सरसों/अलसी
  2. द्वि फसली फसल-चक्र (असिंचित क्षेत्रों में जहाँ वर्षा 1000 मि.ली. से अधिक होती हैं) धान/सोयाबीन के बाद असली
  3. द्वि फसली फसल-चक्र (सिंचित एवं अर्द्धसिंचित क्षेत्रों में) धान के बाद अलसी, सोयाबीन के बाद अलसी, ज्वार/बाजरा/मक्का के बाद अलसी

उपयुक्त अंतर्: फसलीकरण

असिंचित दशा – गेहूँ + अलसी (4:2 कतारें) 22 से.मी. की कतारों में सिंचित दशा -गन्ना + अलसी (1:2 कतारें) 30 से.मी. की कतरों में।

 

Source-

  • Jawaharlal Nehru Krishi VishwaVidhyalaya,Jabalpur(M.P.)
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