अलसी की खेती-उत्तरप्रदेश

अलसी की तैयारी

इसकी खेती मटियार व चिकनी दोमट भूमियों में सफलतापूर्व की जा सकती है । खरीफ की फसलें काटने के बाद एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए तत्पश्चात् कल्टीवेटर अथवा देशी हल से दो बार जुताई करके खेत अच्छी तरह समतल कर लेना चाहिए ।

अलसी की उन्नतशील प्रजातियां

1.बीज उद्देश्य: गरिमा, श्वेता, शुभ्रा लक्ष्मी-27, पद्मिनी, शेखर, शारदा, मदू आजाद-1
2.द्विउद्देशीय: गौरव, शिखा, रश्मि, पार्वती

 

बीज दर

बीज उद्देशीय प्रजातियों के लिए 30 किग्रा./है. तथा द्विउद्देशीय प्रजातियों के लिए 50 किग्रा./है. ।

बुवाई की दूरी

बीज उद्देशीय प्रजातियों के लिए 25 सेमी. कूंड से कूंड तथा द्विउद्देशीय प्रजातियों के लिए 20 कूंड से कूंड ।

बुवाई का समय एवं विधि

अलसी बोने का उचित समय सम्पूर्ण अक्टूबर माह है । इसकी बुवाई हल के पीछे कूंड मंे  25 सेमी. की दूरी पर करें ।

बीज शोधन

अलसी की फसल में झुलसा तथा उकठा आदि का संक्रमण प्रारम्भ में बीज या भूमि अथवा दोनों से होता है, जिनसे बचाव हेतु बीज को 2.5 ग्राम थीरम या 2 ग्राम कार्बेन्डाजिम से प्रति किग्रा. बीज की दर से उपचार करके बोना चाहिए ।

उर्वरकों की मात्रा

असिंचित क्षेत्र के लिए अच्छी उपज प्राप्ति हेतु नत्रजन 50 किग्रा., फास्फोरस 40 किग्रा. एवं पोटाश 40 किग्रा. की दर से तथा सिंचित क्षेत्रों में 100 किग्रा. नत्रजन, 60 किग्रा., फास्फोरस 40 किग्रा. एवं पोटाश प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग करें । असिंचित दशा में नत्रजन फास्फोरस एवं पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा तथा सिंचित दशा में नत्रजन की आधी मात्रा फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय चोंगे द्वारा 2-3 सेमी. नीचे प्रयोग करें । सिंचित दशा में नत्रजन की शेष आधी मात्रा टाप ड्रेसिंग के रूप में प्रथम सिंचाई के बाद प्रयोग करें । फास्फोरस के लिए सुपर फास्फेट का प्रयोग अधिक लाभप्रद है ।

सिंचाई

यह फसल प्रायः असिंचित रूप में बोई जाती है, परन्तु जहां सिंचाई का साधन उपलब्ध है वहां दो सिंचाई पहली फूल आने पर तथा दूसरी दाना बनते समय करने से उपज में बढ़ोत्तरी होती है ।

 

अलसी के रोग

1.अल्टरनेरिया झुलसा रोग

इस रोग का प्रकोप पौधों के सभी भागों पर होता है सर्वप्रथम पत्तियों के ऊपरी सतह पर गहरे कत्थाई रंग के गोल धब्बे रूप में लक्षण दिखाई पड़ता है जो छल्लेदार होता है । यह रोग ऊपर की ओर बढ़कर तने शाखाओं, पुष्पक्रमों एवं फलियों को भी प्रभावित करता है । रोग की उग्र अवस्था में फलियां काली पड़कर मर जाती हैं और हल्का सा झटका लगने से टूट कर गिर जाती हैं ।

रोकथाम
  •  बीज को 2.5 ग्राम थीरम प्रति किग्रा. बीज की दर से शोधित करके बोयें ।
  • बुवाई नवम्बर के प्रथम सप्ताह में करें ।
  • गरिमा, श्वेता, शुभ्रा, शिखा, शेखर तथा पद्मिनी प्रजातियां बोयें ।
  • खड़ी फसल में मैकोजेब 2.5 किग्रा./है. की दर से 40-50 दिन पर छिड़काव करें । दूसरा और तीसरा छिड़काव 15 दिनों के अन्तराल पर करें ।

2.श्रतुआ या गेरूई रोग

इस रोग में पत्तियोें, पुष्प, शाखाओं तथा तने पर रतुआ के नारंगी रंग के फफोले दिखाई देते हैं । इस रोग की रोकथाम के लिए मैकोजेब 2.5 किग्रा. अथवा घुलनशील गंधक 3 किग्रा./है. की दर से छिड़काव करें।

3. उकठा रोग

रोग ग्रसित पौधों की पत्तियां नीचे से ऊपर की ओर पीली पड़ने लगती हैं तथा बाद में पूरा पौधा सूख जाता है । इस रोग के बचाव के लिए दीर्घ अवधि का फसल चक्र अपनायें ।

4.बुकनी रोग

इस रोग में पत्तियों पर सफेद चूर्ण सा फैल जाता है और बाद में पत्तियां सूख जाती हैं । इसकी रोकथाम के लिए घुलनशील गंधक 3 किग्रा./है. की दर से छिड़काव करें ।

अलसी के कीट

१.गालमिज

नवजात मैगट सफेद पारदर्शी एवं पीले धब्बेयुक्त होते हैं जो पूर्ण विकसित होने पर गहरे नारंगी रंग के हो जाते हैं । प्रौढ़ कीट गहरे नारंगी रंग की छोटी मक्खी होती है । इसकी छोटी गिडारें फसल की खिलती कलियों के अन्दर के पुंकेसर को खा कर नुकसान पहुँचाती हैं जिससे फलियों में दाने नहीं बनते हैं ।

एकीकृत प्रबंधन
  •  गर्मी  की गहरी जुताई से गालमिज की सूंडियां मर जाती हैं ।
  • गालमिज से अवरोधी प्रजातियां जैसे नीलम, गरिमा, श्वेता आदि का बुवाई के लिए चयन करना चाहिए ।
  •   बुवाई अक्टूबर के तीसरे सप्ताह तक अवश्य कर देना चाहिए ।
  • चना, सरसों एवं कुसुम के साथ सहफसली करने से गालमिज का प्रकोप कम हो जाता है ।
  • संतुलितएवं संस्तुत उर्वरकों का ही प्रयोग करें ।
  • प्रकाश प्रपंच लगाकर प्रौढ़ मक्खियों को आकर्षित कर मारा जा सकता है ।
  • कलियां बनना प्रारम्भ होते ही सप्ताह के अन्तराल पर सर्वेक्षण करते रहना चाहिए तथा 5 प्रतिशत प्रकोनित कलियां पाये जाने पर मिथाइल-ओ-डिमेटान 25 ई.सी. 1 लीटर, मोनोक्रोटोफास 36 ई.सी. 750 मिली. मात्रा को 750-800 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए ।

प्रभावी बिन्दु

  • संस्तुत प्रजातियों के प्रमाणित बीज प्रयोग करें ।
  • संतुलित मात्रा में उर्वरक प्रयोग करें ।
  • सिंचाई उपलब्ध होने पर फूल आने के समय कम से कम एक सिंचाई अवश्य करें ।
  • गालमिज के नियंत्रण के लिए कली बनते समय ही किसी कीटनाशक का छिड़काव कर दिया जाये ।

 

स्रोत –

  • कृषि विभाग, उत्तर प्रदेश

 

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