अरबी की खेती / घुइयाॅं की खेती -मध्यप्रदेश

अरबी (घुइयाॅं) को मुख्यतः कंद के रूप में उपयोग हेतु लगाया जाता हैं ग्रीष्म कालीन अरबी का बाजार मूल्य खरीफ कालीन अरबी से अधिक मिलता हैं अरबी के पत्तियाॅं एवं कंदों में एक प्रकार उद्दीपनकारी पदार्थ (कैल्षियम आॅक्जीलेट) होता हैं, जिसके कारण इसे खाते वक्त मुॅंह एवं गलेमेंतीक्षणता खुजलाहट) उत्पन्न होती हैं।

उन्नत एवं विकसित प्रजातियों में यह तत्व नाम मात्र पायाजाता हैं अरबी का कंद कार्बोहाइड्रेट एवं प्रोटी का अच्छा स्त्रोत हैं इसके कंदों में स्टार्च की मात्राआलू और शकरकंद से अधिक होती हैं इसकी पत्तियों में विटामिन ’ए’ खनिज लवण जैसे फास्फोरस,कैल्शियम व आयरन तथा बीटा कैाराटिन पाया जाता हैं।

इसकी नर्म पत्तियों से साग्र एवं पकोडे बनाये जाते हैं कंदों को साबुत उबालकर छिलका उतारने के बाद तेल या घी में भूनकर स्वादिष्ट व्यंजन के रूप में प्रयोग किया जाता हैं। हरी पत्तियों को बेसन एवं मसाले के साथ रोल के रूप में भाप से पकाकर खाया जाता है। पत्तियों के डंठल को टुकडों में काट एवं सुखा कर सब्जी के रूप में प्रयोग किया जाता है। अरबी अजीर्ण के रोगियों के लिये फायदे मंद है एवं इसका आटा बच्चो  के लिए गुणकारी है।

अरबी की उन्नत किस्में

१.इंदिरा अरबी

इस प्रजाति के पत्ते मध्यम आकार एवं हरे रंग के होते हैं। तने (पर्णवृन्त) का रंग ऊपर- नीचे बैंगनी एवं बीच में हरा होता हैं इस प्रजाति में 9 से 10 मुख्य पुत्री धनकंद पाये जाते है। इसके कंद स्वादिष्ट खाने योग्य होते हैं तथा पकाने पर शीघ्र पकते हैं यह प्रजाति 210-220 दिन में खुदाई योग्य हो जाती हैं। इसकी औसत उपज 22 टन एवं अधिकतम उपज 33 टन प्रति हेक्टेयर हैं।

२.श्रीरष्मि

इसका पौधा लम्बा, सीधा एवं पत्तियाॅं झुकी हुई, हरे रंग की बैंगनी किनरा लिये होती है। तना (पर्णवृन्त) का ऊपरी भाग हरा, मध्य एवं निचला भाग बैंगनी हरा होता हैं इसका मातृ कंद बडा एवं बेलनाकार होता है। पुत्री धनकंद मध्यम आकार के तथा नुकीले होते हैं। इस प्रजाति के कंद कंदिकाएॅं, पत्तियां एवं पर्णवृन्त सभी तीक्ष्णता (खुजलाहट) रहित होते हैं और उबालने पर शीघ्र पकते हैं। यह प्रजाति 200-201 दिन में खुदाई के लिये तैयार हो जाती हैं। तथा इससे औसत 150-200 क्ंव. प्रति हे. उपज प्राप्त होती हैं।

३.पंचमुखी

इस प्रजाति में सामान्यतः पाॅंच मुख्य पुत्री कंदिकाये पायी जाती हैं कंदिकायें खाने योग्य होती है तथा पकने पर शीघ्र पक जाती हैं। रोण के 180 से 200 दिन बाद इसके कंद खुदाई योग्य हो जाते हैं तथा इस प्रजाति से 18 से 25 टन प्रति हे. औसत कंद उपज प्राप्त होती हैं।

४.व्हाइट गौरेइया

अरबी की यह किस्म उत्तम प्रजाति के रोपण के 180 से 190 दिन में खुदाई योग्य हो जाती हैं। इसके मातृ एवं पुत्री कंद तथा पत्तियां खाने योग्य होती हैं इसकी पत्तियां डंठल एवं कंद खुजलाहट मुक्त होते हैं। उबालने या पकाने पर कंद शीघ्र पकते है।इस प्रजाति की औसत उपज 17 से 19 टन प्रति हे. हैं।

५.नरेन्द्र अरबी

इस प्रजाति के पत्ते मध्यम आकार के एवं हरे रंग के होते हैं। पर्णवृन्त का ऊपरी और मध्य भाग हरा निचला भाग हरा हेाता हैं यह 170-180 दिनो में तैयार हो जाती हैं और औसत 120-150 क्ंवटल प्रति हे. उपज देती हैं इस प्रजाति की पत्तियाॅं, पर्णवृन्त एवं कंद सभी पकाकर खाने योग्य होते हैं।

इसके अतिरिक्त अरबी अन्य किस्में श्री पल्लवी (210 दिन 16-18 टन/हे.), श्रीकिरण (190 दिन 17 टन/हे.), सतमुखी (200 दिन 15-20 टन/हे.) ,नरेन्द्र अरबी (190 दिन 15-20 टन/हे.), आजाद अरबी (135 दिन 28-30 टन/हे.) , मुक्ताकेषी (160 दिन 20 टन/हे.) , बिलासपुर अरूम (190 दिन 30 टन/हे.) भी अच्छा उत्पादन देती हैं।

भूमि और जलवायु

अरबी की अच्छी फसल लेने के लिए बलुई दोमट आदर्ष भूमि हैं। दोमट एवं चिकनी दोमट में भी उत्तम जल निकास के साथ इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती हैं इसकी खेती के लिए 5. 5 से 7.0 पी.एच. मान वाली भूमि उपयुक्त होती हैं रोपण हेतु खेत तैयार करने के लिए एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल एवं दो जुताई कल्टीवेटर से करके पाटा चलाकर मिट्टी को भुरीभुरी बना लेना चाहिए। अरबी की फसल को गर्म और नम जलवायु तथा 21-27 डिग्री सेल्सियस तापक्रम की आवश्यकता होती हैं।

अधिक गर्म तथा अधिक सूखा मौसम इसकी उपज पर विपरित प्रभाव डालता हैं जहाॅं पाले की समस्या होती हैं वहाॅं यह फसल अच्छी उपज नहीं देती है जिन स्थानो  पर औसत वार्षिक वर्षा 800-1000 मिमी. एवं समान रूप से वितरित होती हैं, वहाॅं इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती हैं। छायादार स्थान में भी उपज अच्छी होती हैं अतः फलदार वृक्षो  के साथ अन्तवर्तीय फसलों के रूप ली जा सकती है।

बीज की बुआई

बीज की बुआई का समय

अरबी का रोपण जून-जुलाई (खरीफ फसल) में किया जाता हैं निमाड क्षेत्र मं इसके अक्टूबर माल में लगाया जाता हैं उत्तरी भारत में इसे फरवरी-मार्च में भी लगाई जाती हैं।

बीज की मात्रा

बीज दर प्रजाति तथा कंद के आकार एवं वनज पर निर्भर करती है सामान्य रूप से 1 हेक्टेयर में रोपण हेतु 15-20 क्विंटल कंद बीज की आवश्यकता होती हैं इसके मातृ एवं पुत्री कंदों (20-25 ग्राम) दोनों को रोपण सामग्री हेतु प्रयुक्त किया जाता हैं।

बीजोपचार

कंदो  को रिडोमिल एम.जेड.-72 की 5 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम कंद की दर से उपचारित करना चाहिए। कंदो  को बुआई पर्वू  फफंूदनाषक के घोल में 5-10 मिनट डुबाकर रखना चाहिए।

कंद रोपण पद्धति

मेड़नाली पद्धतिः इस विधि में तैयार खेत में 60 सेमी. की दूरी पर मेड़ व नाली का निर्माण किया जाता हैं तथा 10 सेमी. उंची मेड पर 45 सेमी की दूरी पर प्रत्येक कंद बीज को 5 सेमी की गहराई में रोपा जाता हैं।

ऊॅंची समतल शैया तथा मेड़नाली पद्धति

इस विधि में खेत में 8 से 10 समी. ऊॅंची समतल बडे (शैया) बनाते हैं, जिसके चारो तरफ जल निकास नाली 50 सेमी. की होती हैं। इस शैया पर लाईन की दूरी 60 सेमी. की रखते हुए 45 सेमी. के अंतराल पर बीजो  का रोपण 5 सेमी. की गहराई पर किया जाता है। इस विधि में रोपण के दो माह बाद निंदाई-गुडाई के साथ उर्वरक की बची मात्रा देने के बाद पौधो  पर मिट्टी चढाकर बेड को मेडनाली में परिवर्तित करते हैं यह विधि अरबी की खरीफ फसल के लिये उपयुक्त हैं।

 

नाली मेड पद्धति

इस विधि मे  अरबी का रोपण 8-10 सेमी. गहरी नालियो  में 60 65 सेमी. के अंतराल पर करना चाहिए। रोपण से पर्वू  नालियो  मे  आधार खाद एवं उर्वरक देना चाहिए। रोपण के 2 माह बाद बचे हुए उर्वरक की मात्रा देने के साथ नालियो को मिट्टी से उपर तक भर पौधो  पर मिट्टी चढाकर मेड नाली पद्धति में परिवर्तित कर देना चाहिए। यह विधि रेतीली दोमट तथा दियरा (नदी किनारा) भूमि के लिए उपयुक्त हैं।

खाद और उर्वरक

अरबी के लिए भूमि तैयार करते समय 15-20 टन प्रति हे. सडी गोबर की खाद या कम्पोस्ट खाद तथा आधार उर्वरक को अंतिम जुताई करते समय मिला देना चाहिए रासायनिक उर्वरक नत्रजन 80-100 किग्रा., फास्फोरस 60 किग्रा. तथा पोटाश 80-100 किग्रा. प्रति हे. की दर से प्रयोग लाभप्रद हैं नत्रजन एवं पोटाश की पहली मात्रा आधार के रूप में रोपण के पूर्व देना चाहिए। दूसरी मात्रा का प्रयोग निंदाई-गुडाई के साथ करना चाहिए। दो माह पश्चात  नत्रजन की तीसरी और पोटाश की दूसरी मात्रा को निदं-गुडाई के साथ देने के बाद पौधो  पर मिट्टी चढा देना चाहिए।

सिंचाई

अरबी की पत्तियों का फैलाव ज्यादा होने के कारण वाष्पोत्सर्जन ज्यादा होता है अतः प्रति इकाई पानी की आवश्यकता अन्य फसलों से ज्यादा होती हैं। सिंचित अवस्था में रोपी गयी फसल में 7-10 दिन के अंतराल पर 5 माह तक सिंचाई आवश्यक हैं वर्षा आधारित फसल में 15-20 दिन तक वर्षा न होतो सिंचाई के साधन उपलब्ध होने पर सिंचाई अवश्य करनी चाहिए। परिपक्व होने पर भी अरबी की फसल हरी दिखती हैं, सिर्फ पत्तों का आकार छोटा हो जाता हैं खुदाई के एक माह पूर्व सिंचाई बंद कर देना चाहिए।जिससे नये पत्ते नहीं निकलते हैं और फसला पूर्णरूपेण परिपक्व हो जाती हैं।

 

अतिरिक्त सस्य क्रियाएॅं

अच्छी उपज के लिये यह आवश्यक हैं, कि खेत खरपतवारों से मुक्त रहे तथा मिट्टी सख्त न होने पाये। इसके लिये रोपण के एक माह हल्की निंदाई-गुडाई की आवश्यकता पडती हैं। यदि रोपण के बाद मल्चिंग (पलवार) का प्रयोग किया जाये तो खरपतवारों की रोकथाम अपने आप हो जाती हैं तथा कंदो  का अंकुरण भी अच्छा होता हैं रोपण के बाद कुल तीन निंदाई-गुडाई (30,60,90 दिन बाद) की आवश्यकता होती हैं 60 दिन गुडाई के साथ मिट्टी चढ़ाने का कार्य भी करना चाहिए। यह ध्यान रखना चाहिए कि कंद हमेश मिट्टी से ढके रहे।

नींदा नियंत्रण हेतु रासायनिक खरपतवार नाशी सिमाजिन या एट्र्जिन 1.5 से 2.0 किग्रा. प्रति हे. की दर से रोपण पूर्व उपयोग किया जा सकता है अरबी की फसल में प्रति पौधा अधिकतम तीन स्वस्थ पर्णवृन्तों को छोड़ बाकी अन्य निकलने वाले पर्णवृन्तों की कटाई करते रहना चाहिए इससे कंदों के आकार में वृद्धि होती हैं।

अरबी के कीट एवं रोग नियंत्रण

१.तंबाखु की इल्ली

अरबी को हानि पहुंचाने वाला यह एक प्रमुख कीट हैं इसकी इल्लियाॅं पत्तियों के हरित भाग को चटकर जाती हैं, जिससे पत्तियों की शिराएॅं दिखने लगती हैं और धीरे-धीरे पूरी पत्ती सूख जाती हैं कम संख्या में रहने पर इनको पत्ते समेत निकाल कर नष्ट कर देना चाहिए। अधिक प्रकोप होने पर क्ंविनालफाॅस 25 ई.सी. 2 मिली. प्रति लीटर पानी या प्रोफेनोफाॅस 3 मिली./लीटर पानी का छिडकाव करना चाहिए।

२.एफिड (माहो) एवं थ्रिप्स

एफिड (माहो) एवं थ्रिप्स रस चूसने वाले कीट ह और पत्तियों का रस चूस कर नुकसान पहुचाते है, जिससे पत्तियाॅं पीली पड़ जाती हैं पत्तियों पर छोटे काले धब्बे दिखाई देते हैं। अधिक प्रकोप होने पर पत्तियां सूख जाती हैं कविनालफाॅस या डाइमेथियोट के 0. 05 प्रतिशत घोल का 7 दिन के अंतराल पर दो से तीन छिडकाव कर रस चूसने वाले कीटो  को नियंत्रित किया जा सकता हैं।

३.फाइटोफ्थोरा झुलसन (पत्ती अंगमारी)

अरबी की फसल का यह मुख्य रोग हैं यह रोग फाइटोफथोरा कोलाकेसी नामक फफूंदी के कारण होता है। इस रोग में पत्तियाॅं, कंदों, पुष्प पुंजो पर रोग के लक्षण दिखाई देते हैं। पत्तियों पर छोटे-छोटे गोल या अण्डाकार भूरे रंग के धब्बेपैदा होते है। जो धीरे-धीरे फैल जाते हैं। बाद में डण्ठल भी रोग ग्रस्त हो जाता हैं एवं पत्तियो गलकर गिरने लगती हैं एवं कंद सिकुड कर छोटे हो जाते हैं। कंद बोने से पूर्व रिडोमिल एमजेड.-72 से उपचारित करो। खडी फसल में रोग की प्रारम्भिक अवस्था में रिडोमिल एम.जेड-72
की 2.5 ग्रा. मात्रा प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर छिडकाव करें।

४.सर्कोस्पोरा पर्ण चित्ती (पत्ती धब्बा)

पत्तियों पर छोटे वृताकार धब्बे बनते हैं जिनके किनारे पर गहरा बैंगनी तथा मध्य भाग राख के समान होता हैं परन्तु रोग की उग्र अवस्था में यह धब्बे मिलकर बडे धब्बे बनते हैं, जिससे पत्तियाॅं सिकुड जाती हैं एं फलस्वरूप पत्तियाॅं झुलसकर गिर जाती है। रोग की प्रारम्भिक अवस्था में मेकोजेब 0.3 प्रतिशत का छिडकाव करो एवं क्लोरोथेलोनिल की 0.2 प्रतिशत मात्रा का छिडकाव करें।

५.दसीन मोजाईक

इसके प्रकोप से पत्तियाॅं तथा पौधे छोटे रह जाते हैं पत्तियों पर पीली सफेदधारियाॅं पड जाती हैं प्रभावित पौधो  मे  बहुत ही कम मात्रा मे  कंद बनते हैं। इस रोग के प्रबंधन हेतु रोग मुक्त फसल से बीज लेना चाहिए। रस चूसने वाले कीट जो की इस रोग को फैलाते हैं, का प्रभावी नियत्रं ण करना चाहिए प्रभावित पौधो  को कंद समेत उखाड कर नष्ट करके इस रोग को फैलने से रोका जा सकता हैं।

६.कंद का शुष्क सडऩ रोग

यह रोग भण्डारण मे  कंदो  को क्षति पहुॅंचाते हैं संक्रमित कंद भूरे, काले, सूखे सिकुडे कम भार वाले होते हैं तथा कंद के उपरी सतर पर सूखा फफूंद चुर्ण बिखरा रहता हैं। लगभग 60 दिन मे  संक्रमित कंद पूरी तरह से सड़ जाता है। और सड़े कंदों से अलग किस्म की बदबू आती हैं बीज हेतु प्रयुक्त होने वाले कंद को 0.1 प्रतिशत मरक्यूरिक क्लोराइड या 0.5 प्रतिशत फार्मेलिन से उपचारित कर भण्डारित करना चाहिए।

खुदाई एवं उपज

अरबी की वर्षा आधारित फसल 150-175 दिन और सिंचित अवस्था की फसल 175-225 दिनो  मे  तैयार हो जाती हैं। कंद रोपण के 40 से 50 दिन बाद पत्तियाॅं कटाई के योग्य हो जाती है। कंद उपज के लिये रोपित फसल की खुदाई आमतौर पर जब पत्तियाॅं छोटी हो जाए और पीली पड़कर सूखने लगे तब की जाती हैं। खुदाई उपरान्त अरबी के मातृ कंदो  और पुत्री कंदिकाओं को अलग करना चाहिए।

सामान्य अवस्था में अरबी से प्रजाति अनुसार वर्षा आधारित फसल के रूप में 200-220 क्ंविटल और सिंचित अवस्था की फसल मे  250 से 300 क्ंवि. प्रति हे. कंद उपज प्राप्त होती हैं जब लगातार पत्तियों की कटाई की जाती है तब कंद और कंदिकाओ  की उपल 60 से 80 क्ंवि. प्रति हे. प्राप्त होती है एक हे. से 8-10 टन हरी पत्तियों की उपज होती है।

मातृकंदो  को मात्र 1-2 महीने तक तथा पुत्री कंदिकाओ  को 4-5 महीने तक सामान्य तापक्रम पर हवादार भण्डार गृह मे  भण्डारित किया जा सकता हैं कंद एव  कंदिकाओ  का पानी से धुलाई एव  श्रेणीकरण करना आवश्यक हैं केवल लम्बी अंगुलीकार कंदिकाओ  को छाया मे  सूखाकर बाॅस की टोकरी या जूट के बोरों में भरकर विक्रय हेतु भेजना चाहिए ग्रीष्मकालीन अरबी के कंदो को भण्डारण ज्यादा दिन तक नहीं किया जा सकता है। अतः खुदाई उपरांत एक माह के अंदर कंदो  का उपयोग कर लेना चाहिए।

उत्पादकता बढाने हेतु मुख्य बिन्दु

1.अरबी को मेड़नाली पद्धति से बुआई करना चाहिए जिसमें तैयार खेत में 60 सेमी. की दूरी पर मेड़ व नाली का निर्माण किया जाता हैं तथा 10 सेमी. उंची मेड पर 45 सेमी की दूरी पर प्रत्येक कंद बीज को 5 सेमी की गहराई में रोपा जानस चाहिए हैं।
2. अरबी के लिए भूमि तैयार करते समय 15-20 टन प्रति हे. सडी गोबर की खाद या कम्पोस्ट खाद तथा आधार उर्वरक को अंतिम जुताई करते समय मिला देना चाहिए रासायनिक उर्वरक नत्रजन 80-10०किग्रा ., फास्फोरस 60 किग्रा. तथा पोटाश 80-100 किग्रा. प्रति हे. की दर से प्रयोग लाभप्रद है
3. फाइटोफ्थोरा झुलसन (पत्ती अंगमारी): अरबी की फसल का यह मुख्य रोग हैं जिसमें पत्तियो गलकर गिरने लगती हैं एवं कंद सिकुड कर छोटे हो जाते हैं। कंद बोने से पूर्व रिडोमिल एम.जेड. -72 से उपचारित करें। खडी फसल में रोग की प्रारम्भिक अवस्था में रिडोमिल एम.जेड-72 की 2.5 ग्रा. मात्रा प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर छिडकाव करे।

4. अरबी की पत्तियों का फैलाव ज्यादा होने के कारण वाष्पोत्सर्जन ज्यादा होता है । सिंचित अवस्था
में रोपी गयी फसल में 7-10 दिन के अंतराल पर 5 माह तक सिंचाई आवश्यक हैं । परिपक्व होने पर भी अरबी की फसल हरी दिखती हैं, सिर्फ पत्तों का आकार छोटा हो जाता हैं खुदाई के एक माह पूर्व सिंचाई बंद कर देना चाहिए।

 

 

स्रोत-

  • कृषि विज्ञान केन्द्र

 

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