अरण्डी के कीट और रोग

अरण्डी के कीट और रोग इस प्रकार हैं-

अरण्डी के रोग

1. अँगमारी

यह अरण्डी की बहुत ही व्यापक बीमारी है तथा देश में इस फसल को उगाने वाले सभी क्षेत्रों में लगती है। यह फाईटोफ्थोरा नामक कवक द्वारा जनित होती है। सामान्य रूप से यह बीमारी पौधों के 15-20 से.मी. ऊँचा होने तक उसकी प्रारम्भिक बढ़वार की अवस्थाओं में लगती है। रोग के लक्षण बीज-पत्र की दोनों सतहों पर गोल एवं धुधले धब्बे के रूप में दिखाई पड़ते हैं। यदि इसे रोका न गया तो यह रोग धीरे-धीरे पत्तियों से तने तथा क्रमशः वर्धन-शिखा तक पहुँच जाता है। बीमारी की उग्र अवस्था में पत्तियाँ सड़ने लगती हैं तथा अन्त में पौधे सड़ कर गिर जाते हैं। इसकी रोकथाम के लिए डाइथेन एम-45 के 0.25 प्रतिशत घोल का 1000 लीटर प्रति हेक्टर के हिसाब से 2-3 बार छिड़काव करना चाहिए।

2. पर्णचिती रोग

यह बीमारी सर्कोस्पोरा रिसिनेला नामक कवक से उत्पन्न होती है। पहले पत्तियों पर छोटे-छोटे धब्बे उभरते हैं फिर ये बाद में भूरे रंग के बड़े धब्बों में बदल जाते है। 1 प्रतिशत बोर्डीएक्स मिक्सर या कोपर ओक्सी क्लोराइड 2 प्रतिशत की दर से छिड़काव करने से इस बीमारी की रोकथाम की जा सकती है तथा मेंन्कोजेब 2 ग्राम प्रति लीटर या कार्बेडाजिम 500 ग्राम प्रति हेक्टर की दर से 10-15 दिन के अंन्तराल पर 2 छिड़काव करने से बीमारी को कम किया जा सकता है।

3. अल्टरनेरिया झुलसा

बीमारी सबसे पहले बीज पत्र पर धब्बों के रुप में दिखाई देती है। धब्बे पत्ते के किसी भी भाग में दिखाई दे सकते हैं। जब आक्रमण उग्र होता है तब धब्बे मिल कर बड़ा धब्बा बनाते हैं। इसकी रोकथाम साफ-सुथरी कृषि व प्रतिरोधी किस्मों के चयन द्वारा संभव है। बीमारी की संभावना होने पर डाइथेन एम-45 या डाइथेन जेड-78 में से किसी एक फफूॅदनाशी की 1 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व की मात्रा को 500-600 लीटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए। यदि रोग नियंत्रण नहीं हो तो 10-15 दिन के बाद दुबारा छिड़काव करना चाहिए।

 

अरण्डी के कीट

1. सेमीलूपर

सेमीलूपर इस फसल का बहुत ही विनाशकारी कीट है। इसकी तेजी से रेंगने वाली लट जो 3.3-5 से.मी. लम्बी होती है फसल को खाकर कमजोर कर देती है। यह लट 11-16 दिनों तक पत्तियाॅं खाने के बाद प्यूपा में परिवर्तित हो जाती है। वर्षा काल (अगस्त से सितम्बर) में इस कीट का अत्यधिक प्रकोप होता है। लट सामान्य रूप से काले भूरे रंग के होते हैं। जिन पर हरी भूरी या भूरी नारँगी धारियाँ भी होती हैं। यह गिडारों की तरह सीधा न चल कर रेंगती हुई चलती है। इसकी रोकथाम के लिए क्विनलफास 1 लीटर कीटनाशी दवा को 700-800 लीटर पानी में घोल बना कर छिड़काव की जा सकती है।

 

2. तना छेदक कीट

तना छेदक कीट की इल्ली गहरे तथा भूरे रंग की होती है यह प्रमुख रूप से अरण्डी के तनों तथा संपुट को खाकर खोखला कर देती है इसकी गिडार 2-3 से.मी. तक लम्बी तथा भूरे रंग की होती है। इस अवस्था में वह 12-14 दिन रहती है तथा खोखले तनों एवं संपुटों के अन्दर घुसकर प्यूपा का रूप धारण कर लेता है। इसकी रेाकथाम के लिए सर्वप्रथम रोगग्रस्त तनों एवं संपुटो को इकट्ठा करके जला देना चाहिए तथा क्चिनलफास 25 ई.सी. की 1 लीटर दवा को 700-800 लीटर पानी में घोल छिड़काव कर देना चाहिए।

 

3. रोंयेवाली इल्ली

खरीफ वाली फसलों में रोयें वाली इल्ली इस फसल को अधिक हानि पहुँचाती है। इस कीट की साल में तीन पीढ़िया होती हैं। इसके गिडार पत्तियों को खाते हैं जो बाद में गिर जाती हैं। खेत में ज्योही इस कीट के अण्डे दिखाई दें उन्हें पत्तियेां सहित चुनकर जमीन में गाड़ देना चाहिए। शेष कीड़ों की रोकथाम के लिए खेत में इमिडाक्लोरपिड 1 मि.ली. केा 1 लीटर पानी में घोल छिड़काव कर देना चाहिए।

 

स्रोत-

  • केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान

 

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