परिचय
अंगूर विशेष तकनीकी कुशलता से उगाया जाने वाला फल हैं। वर्तमान में महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश, कर्नाटक, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान एवं मध्यप्रदेश में इसकी व्यवसायिक खेती की जाती हैं। पश्चिमी मध्यप्रदेश में रतलाम, मंदसौर व खंडवा जिलों में इसका क्षेत्रफल बढ रहा हैं।
अंगूर एक स्वादिष्ट फल है जिसे ताज़े फल के रूप में खाया जाता है। इसके साथ-साथ अंगूर का उपयोग किशमिश, शर्बत एवं अल्कोहलयुक्त पेय पदार्थ बनाने में होता हैं। फलों में लगभग 20 प्रतिशत शर्करा तथा खनिज लवण होते हैं। अंगूर में प्रति इकाई क्षेत्र, अधिक उपज प्राप्त होती है एवं फलों की कीमत अच्छी मिलने के कारण अंगूर सबसे अधिक मुनाफा देने वाली फसल हैं।
यह फल शीतल दस्तावर, रक्तवर्धक, मूत्रवर्धक एवं कफवर्धक होता है एवं आँखों, गले, यकृत, फेफड़ों तथा गुर्दे के लिये उपयोगी होता हैं। अंगूर काष्टीय बेल है। जिसे सहारा देकर बढाया जाता हैं इसे खम्बों तथा तारों से बने मण्डप पर फैलाया जाता हैं। यह दो से तीन वर्ष में फलन प्रारंभ कर देता हैं तथा चैथे वर्ष से पर्याप्त उपज प्राप्त होती हैं। किस्मों के अनुसार एक पौधे से 15-25 किलो तक अंगूर प्राप्त होते हैं। मध्यप्रदेश में मुख्य फसल फरवरी – मार्च में आती है तथा ग्वालियर जैसे क्षेत्र में अप्रैल – मई में फसल प्राप्त होती हैं।
जलवायु
अंगूर के लिये सामान्य (न अधिक ठंड व न अधिक गर्म) जलवायु की आवश्यकता होती है। इसके लिये आर्द जलवायु हानिकारक होती हैं। अधिक ठंड हो जाने पर पौधों को हानि पहुँचती हैं।
भूमि
अच्छे जल निकास वाली गहरी दोमट भूमि अंगूर उत्पादन के लिये उपयुक्त हैं। मिट्टी की गहराई 4 मीटर तथा पी.एच.मान 6.7 से 7.8 होना चाहिये। भारी मिट्टी में जल निकास के अभाव से अंगूर के बगीचे को हानि पहुँचती हैं।
अंगूर की किस्में
उत्पादन क्षमता, गुणवत्ता, लागत, लाभ, मृदा के प्रकार, वर्षा तापमान एवं बाजार की मांग के अनुसार किस्मों का चयन करें। प्रमुख किस्में इस प्रकार हैं।
१.पूसा सीडलेस
बेल ओजस्वी एवं अधिक उपज देनेवाली होती हैं। गुच्छे का वनज लगभग 250 ग्राम, मध्यम आकार फल चमकदार,आकर्षक, एक साथ पकने वाले एवं फल का छिल्का पतला, टी.एस.एस. 22-24, खटास 0.75 प्रतिशत, रस 65 प्रतिशत होता है| फरवरी-मार्च में पकता हैं।
२.थाॅमसन सीड-लेस
बेल ओजस्वी, खूब फैलने वाली होती हैं। दक्षिण व पश्चिम भाग में सफलता पूर्वक लगायी जा सकती हैं। लेकिन 5-6 वर्ष पश्चात फल में कमी आती हैं। गुच्छे मध्यम से बड़े आकार के बीज रहित मिठास 22 से 24 प्रतिशत, अम्लीयता 0.63 प्रतिशत, रस 39 प्रतिशत होता हैं।
३.परलेट
यह किस्म पश्चिम भारत के लिये उपयुक्त हैं। विशेष तौर पर पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तरप्रदेश में व्यावसायिक स्तर पर उगाई जा सकती हैं। गुच्छे भरे हुये, मध्यम आकार के होते हैं मिठास 15 से 20 प्रतिशत होती है एवं फल बीज रहित होता हैं।
४.अर्कावती
यह अंगूर की काली चम्पा व थाॅमसन सीडलेस की संकर किस्म हैं। बेल ओजस्वी, गुच्छे मध्यम, लगभग 500 ग्राम के होते हैं। दाने गोलाकार, सुनहरे हरे, मिठास 22-25 प्रतिशत अम्लीयता 0.6 -0.7 प्रतिशत एवं रस 70-74 प्रतिशत होता हैं।
५.ब्यूटी सीडलेस
यह शीघ्र पकने वाली किस्म हैं। इसके फल गहरे बैंगनी रंग के एवं अधिक मोटे होते हैं। फल रसीले होते हैं एवं अच्छी उपज प्राप्त होती हैं। इस किस्म का उपयोग रस बनाने के लिये किया जाता हैं। इसके अलावा तास, गणेश एवं सोनाका सीडलेस भी मध्यप्रदेश के लिये उपयुक्त किस्में हैं।
६.फ्लेम सीडलैस
यह उन्नत किस्म गहरे जामुनी रंग वाली कड़े गूदे वाली है जिसमें उपज अधिक प्राप्त होती है तथा सभी क्षेत्रों के लिये उपयुक्त हैं।
पौध प्रसारण एवं रोपण
अंगूर का प्रवर्धन, शाख कलम (कटिंग) द्वारा किया जाता हैं। परिपक्व शाखा की 15 से 25 से.मी. कलम काट कर रोपणी में लगायें । प्रत्येक कलम में 3-4 आँखे होना आवश्यक हैं। अंकुरण के एक माह पश्चात इनको अलग-अलग क्यारियों में लगायें। एक वर्ष पश्चात पौधा खेत में लगाने योग्य पायें।
इसके पौधे का रोपण जुलाई-अगस्त में करें। रोपाई पूर्व खेत की गहरी जुताई कर समतल करें तथा उसमें 3 मीटर कतार से कतार व 3 मीटर पौधे की दूरी पर 60 ग 60 ग 60 से.मी. आकार के गड्ढे खोदें। इन गड्ढों की कतार में 25 किलो गोबर की खाद, 500 ग्राम सुपर फाॅस्फेट तथा 250 ग्राम म्यूरेट आॅफ पोटाष प्रति गड्ढा मिलावें। पौधे को दीमक के प्रकोप से बचाने के लिये 5 मि.ली. क्लोरोपायरिफाॅस, 1 लीटर पानी में मिलाकर गड्ढों में सीचें फिर पौधों का रोपण कर सिंचाई करें। बढते हुये पौधों को बाँस लगा कर सहारा दें।
अंगूर उत्पादन में बेल को निश्चित रूप से सधाई करें। यह कई प्रकार की होती है, इनमें मुख्य हैं-
- शीर्ष विधि
- टेलीफोन तार विधि
- मण्डप या पण्डाल विधि
इनमे से कोई भी विधि अपनाकर बेलों की सधाई करें। इनमें पण्डाल विधि उत्तम हैं।
खाद एवं उर्वरक
खाद उर्वरक |
प्रथम |
द्वितीय |
तृतीय |
चतुर्थवर्ष |
गोबर की खाद (किलो) |
25 | 30 | 40 | 40 |
नत्रजन (ग्राम) | 200 | 300 | 400 | 400 |
पोटोष (ग्राम) | – | 160 | 250 | 250 |
पोटोष (ग्राम) | – | 150 | 300 | 300 |
सामान्य काट – छाँट
चूँकि अंगूर के फूल नवीन शाखाओं पर ही लगते हैं अतः सफल उत्पादन के लिये प्रतिवर्ष नियमित कटाई छटाई करना आवश्यक हैं। ग्वालियर क्षेत्र में कटाई छटाई, वर्ष में एक बार दिसम्बर-जनवरी में करें तथा मालवा मिल क्षेत्र में वर्ष में दो बार मार्च – अप्रेल एवं सितम्बर – अक्टूबर में कटाई छटाई करें शाखाओं को किस्म के अनुसार 6 से 10 आँख छोड़ कर कांटे, जिस पर नये प्रारोह निकलें उन पर पुष्प प्राप्त होंगे। कटाई छटाई के 15 दिन पूर्व सिंचाई रोक दें।
सिंचाई
अंगूर मेंकम सिंचाई की आवश्यकता होती हैं। एक वर्ष से कम उम्र के पौधों की नियमित सिंचाई करें दो वर्ष के पौधों को ठंड में 30 दिन के अंतर पर तथा गर्मी में 10 – 15 दिन के अंतर पर सिंचाई करें। किंतु अधिक सिंचाई नही करें।
निंदाई एवं गुड़ाई
अंगूर के उद्यान को खरपतवार रहित रखें। थालों को हाथ से खरपतवार निकाल कर साफ करें अथवा खरपतवारनाशी रसायन का उपयोग कर उद्यान साफ करें।
हार्मोन का उपयोग
फलों के आकार में वृद्धि प्राप्त करने के लिये जिब्रेलिक एसिड 40-50 पी.पी.एम. (40-50 मि.ग्रा.) 1 लीटर पानी में घोलें। फूल अवस्था तथा मूँग के दाने के बराबर वाले फल की अवस्था पर गुच्छों को घोल में डुबायें, जिससे फलों के आकार में समुचित वृद्धि होगी । यह उपचार सीडलैस किस्मों में अच्छा पाया जाता हैं।
उपज
स्वस्थ वृक्षों में 3 वर्ष पश्चात फलन प्रारंभ हो जाता है। औसत उत्पादन 15 से 28 किलो प्रति बेल प्राप्त होती है अथवा 200-300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर मिलता हैं। फल पकने के समय वातावरण स्वच्छ एवं खुला होना चाहिये। फल पकने के समय वर्षा का होना हानिकारक हैं।
पौध संरक्षण
अंगूर में कई प्रकार के रोग लगते हैं। इसकी रोकथाम के लिये नियमित रूप से पौध संरक्षण अपनायें। सामान्य तौर पर एन्थ्रेकनोज, लीफस्पाॅट, फफूँद रोग नुकसान पहुँचाते हैं। एवं स्केल तथा बीटल कीड़ा भी अक्सर नुकसान करते हैं।
1.एन्थ्रेक्नोज़
शाखाओं की लताओं पर तथा पत्तियों पर काले धब्बे देखे जाते हैं। पत्तियाँ भूरी होकर गिरने लगें तो समझें कि एन्थ्रेकनोज़ रोग का आकम्रण हुआ हैं। यह रोग कवक द्वारा फैलता हैं। इनका प्रकोप बरसात के मौसम में अधिक होता हैं। इसकी रोकथाम के लिये बोर्डो मिश्रण 3: 3: 50 का छिड़काव करें। बरसात में दो तीन बार तथा ठंड में कटाई के बाद एक छिड़काव करें।
२.लीफस्पाॅट
यह कवक रोग हैं। संक्रमित पौधों की पत्तियों पर छोटे गोल गहरे भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। तथा कुछ समय पश्चात पत्तियाँ गिर जाती हैं। इसकी रोकथाम के लिये उपर लिखे फफूंद नाशक दवाओं का छिड़काव करें।
३.भभूतिया या बुकनी (पाऊडरी मिल्डयू)
इस रोग में पत्तियों एवं तनों पर सफेद चूर्ण आच्छादित हो जाता हैं । रोग बढने पर फलों पर भी चूर्ण जम जाता है इससे बचने के लिये गंधक के चूर्ण का भुरकाव करें।
४.मृदुरोमिल फफूंदी (डाऊनी मिल्डयू)
इस रोग में पत्तियों की निचली सतह पर चूर्ण जमा होता है तथा पत्तियाँ सूखकर गिर जाती हैं। बोर्डो मिश्रण 5: 5: 50 का छिड़काव करें। रीडोमिल दवा 0.2 प्रतिशत का छिड़काव करें।
५.शल्क कीट (स्केल कीट)
यह कीट टहनियों का रस चूसते हैं। यह टहनियों के ढीले छिद्र के अंदर विशेषकर मोड़ के स्थान में रहते हैं। अधिक आक्रमण पर टहनियाँ सूख जाती हैं। सुषुप्तावस्था में ढीली छाल हटा कर रोगर, 30 ई.सी. 0.05 या मेटासिस्टाॅक्स 0.03 से 0.05 प्रतिशत छिड़काव करें।
६.चैफर (बीटल)
यह पत्तियों को रात में खाता हैं। दिन में छुपा रहता हैं। पत्तियों में छेद दिखाई देते हैं। वर्षा ऋतु में अधिक हानि होती हैं। क्लोरोपाईरिफाॅस 20 ई.सी. एक लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें।
Source-
- Jawaharlal Nehru Krishi VishwaVidyalaya